फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में अपनी सीट गंवाने वाली भाजपा को कैराना और नूरपुर में और भी बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा है। विजय रथ पर सवार भाजपा का रथ रोकने के लिए कैराना और नूरपुर उपचुनाव में भाजपा के खिलाफ लगभग सभी विपक्षी पार्टियों ने अपने सारे मतभेदों को भुलाकर अपस में हाथ मिला लिया है। इस महागठजोड़ से जहां सपा और राष्ट्रीय लोक दल में खुशी की लहर है। वहीं, भाजपा के लिए इस महागठजोड़ का बनना खतरे की घंटी की तरह था। दरअसल, भाजपा के खिलाफ कैराना और नूरपुर उपचुनाव में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस, निषाद पार्टी, AAP, CPI और पीस पार्टी एक हो गई है। अगर इसी तरह का गठबंधन लोकसभा 2019 में भी बना रहा तो भाजपा के लिए अपनी सत्ता बचाना भी मुश्किल हो सकता है।
महागठजोड़ है कांग्रेस की बड़ी सफलता
इस चुनाव के जरिए कांग्रेस 2019 के लिए भाजपा के खिलाफ एक मजबूत गंठबंधन की भूमिका तैयार करने में जुटी है। यहीं वजह है कि कैराना लोकसभा सीट पर मजबूत स्थिति में होने के बाद भी विपक्ष की जीत को सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस ने यहां अपना प्रत्य़ाशी तक घोषित नहीं किया। दरअसल, कांग्रेस की चाल है कि विपक्ष का वोट किसी भी हाल में नहीं बंटे, ताकि भाजपा को मात दी जा सके। यहीं वजह है कि कांग्रेस अब उपचुनाव में खुद चुनाव लड़ने के बजाए कांग्रेसमुक्त भारत का नारा देने वाली भाजपा को मजबूत विपक्षी उम्मीदवार देकर हराने का काम कर किया। इसीलिए कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने किसी उम्मीदवार की घोषणा नहीं की। कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों की भी यही मानना है कि सपा और रालोद का गठबंधन कांग्रेस के इशारे पर ही हुआ है। इस उपचुनाव में कांग्रेस की खोमोशी पर जब पत्रिका संवाददाता ने प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष इमरान मसूद से बात की तो उन्होंने भी साफ कर दिया कि हमारे लिए मुद्दा प्रत्याशी उतारने का नहीं है। मुद्दा भाजपा को हराने का है। जो भाजपा को हराएगा, हम उसके साथ खडे़ हैं। इससे पहले कांग्रेसी नेता और आईपीएल के चेयरमैन राजीव शुक्ला ने भी अपने सहारनपुर दौरे के दौरान राजनैतिक बयान दिया था कि कांग्रेस विपक्ष को एकजुट करने में लगी है।
इसलिए कांग्रे नहीं लड़ी चुनाव
दरअसल, राजनीतिक हलकों में ये चर्चा है कि अगर कांग्रेस अलग से लड़ती भी है तो इससे भाजपा विरोधी मतों को बांटने का आरोप लगता। ऐसी परिस्थिति में 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में प्रदेश के क्षेत्रीय दलों का गठबंधन भी कांग्रेस को अपने से अलग कर सकता था। परेशानी यह भी है अगर कांग्रेस यहां पर अकेले चुनाव लड़ती है तो उसकी हालत गोरखपुर और फूलपुर की तरह हो जाती। जहां उसके उम्मीदवार कुछ हजार वोट ही पा सके थे। अलग से लड़कर और किसी मुस्लिम को उम्मीदवार बनाकर वह महागठबंधन को ही नुकसान पहुंचाती, जिसका सीधा फायदा भाजपा को होता। इसी लिए कांग्रेस ने इस चुनाव से अपना प्रत्याशी उतारने से परहेज किया है। अब देखना ये होगा अपनी-अपनी महत्वकांक्षाओं के भरे इन क्षेत्रीय पार्टियों का गठबंधन कब तक कायम रह पाता है। अगर 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव विपक्ष इसी एकजुटता से लड़ता है तो शायद ही मोदी सरकार दोबारा सत्ता में आ पाए।