नितिन कान्त चतुर्वेदी
विदिशा। आमतौर पर लगभग हर जगह देवी मंदिरों में प्रतिमाओं की पूजा होती है, लेकिन जिले के बीलखेड़ी गांव में एक ऐसा देवी मंदिर है, जहां देवी की प्रतिमा ही नहीं है। यहां प्रतिमा की बजाय देवी मंा के चरण चिन्हों की पूजा होती है। जिन्हें आस्था से गादी बोला जाता है। इस मंदिर की खास बात यह भी है कि यहां का पुजारी कोई ब्राह्मण नहीं, बल्कि कुशवाह समाज का होता है। सदियों से यहां यही रीत चली आ रही है।
जिला मुख्यालय से करीब 65 किमी दूर शमशाबाद तहसील के ग्राम बीलखेड़ी में माता का यह 600 वर्षों से अधिक प्राचीन मंदिर है। यहां कंकाली माता के चरण चिन्ह हैं, जिन्हें भक्तगण ‘माता की गादीÓ बोलते हैं। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि जब देश में रियासतों का दौर था, तब यह गांव इसी क्षेत्र की अगरा जागीर रियासत के अंतर्गत आता था। इसी रियासत के राजा भी इस मंदिर पर पूजा करने आते थे। रियासत के तत्कालीन राजा छत्रसाल सिंह, बलवंत सिंह, बल्देव सिंह, माधोसिंह, महेंद्र सिंह, शिवेंद्र सिंह ने अपने शासन काल में यहंा पूजा की। देश की आजादी के बाद रियासतें खत्म हो गईं, लेकिन यह परंपरा अब भी जारी है। अब उसी परिवार की सातवीं पीढ़ी के सिंधु विक्रम सिंह भी इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए मंदिर पर माथा टेकने आते हैं। इनके अलावा शमशाबाद सहित आसपास के गांवों के हजारों लोगों की आस्था का यह प्रमुख केंद्र है।
ब्राह्मण नहीं, कुशवाह समाज का होता है पुजारी
इस मंदिर की एक और खासियत इसे अन्य मंदिरों से अलग करती है। वह यह है कि प्राय: हर मंदिर में पुजारी का पद ब्राह्मण समाज के पास होता है, लेकिन बीलखेड़ी के इस मंदिर में कुशवाह समाज के एक परिवार के पास ही पुजारी का दायित्व है। इस परिवार की सातवीं पीढ़ी के तोफान सिंह कुशवाह अब यहां पूजा करते हैं। तोफान सिंह के मुताबिक उनके पूर्वजों के समय से यह सिलसिला चला आ रहा है।
चैत्र नवरात्र में लगता है मेला
इस मंदिर पर प्राचीनकाल से ही चैत्र नवरात्र में मेले की परंपरा भी है। यह मेला नवरात्र शुरू होने के बाद जो पहला शुक्रवार आता है, उसी दिन से शुरू होता है। इस बार 15 अप्रैल से मेला प्रारंभ होगा। बुुजुर्ग बताते हैं कि पहले यह मेला एक माह की अवधि का रहता था, लेकिन कालांतर में अब यह तीन दिन का मेला रह गया।
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