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भोपाल

गैस पीडि़तों के संघर्ष की बुलंद आवाज हुई खामोश

जीवन के अंतिम चरण में उन्हें भी इलाज के लिए जूझना पड़ा

भोपालNov 15, 2019 / 01:51 am

Pushpam Kumar

गैस पीडि़तों के संघर्ष की बुलंद आवाज हुई खामोश

गैस पीडि़तों के संघर्ष की बुलंद आवाज हुई खामोश

भोपाल. गैस पीडि़तों के लिए ताउम्र संघर्ष करने वाले और उनकी आवाज हर फोरम पर उठाने वाले अब्दुल जब्बार की आवाज गुरूवार को हमेशा के लिए शांत हो गई। उन्होंने गैस पीडि़तों की न केवल कानूनी लड़ाई लड़ी बल्कि उन्हें स्वावलंबी भी बनाया। हालांकि अपने जीवन के अंतिम चरण में उन्हें भी इलाज के लिए जूझना पड़ा।
एक्टिविस्ट तक का सफर
अब्दुल जब्बार पहले कंस्ट्रक्शन कंपनी में बोरवेल लगाने का काम करते थे। गैस कांड की रात राजेन्द्र नगर स्थित घर में अपनी माता के साथ थे। यह जगह यूनियन कार्बाइड से मात्र डेढ किमी दूर थी। रात में जब इन्हें गैस रिसाव का आभास हुआ तो स्कूटर पर अपनी माताजी के साथ चालीस किमी दूर चले गए। वहां मां को छोड़ दूसरों की मदद के लिए वापस लौटे। जब वे लौटे तो वहां का माहौल बहुत खराब था। कुछ लोग मर चुके थे तो कुछ गलियों में तड़प रहे थे। रात में लोगों की मदद से शुरू हुआ इनका संघर्ष अंतिम सांस तक चलता रहा। 1987 में इन्होंने भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन बनाया और गैस पीडि़तों और उनके परिजनों के लिए लड़ाई लडऩा शुरू की। खासतौर पर वे विधवा महिलाओं के लिए लड़ते रहे। 1989 में जब गैस पीडि़तों को मुआवजा दिया गया तब उन्होंने स्वाभिमान केन्द्र की स्थापना की जिसमें महिलाओं को सिलाई-कढाई सिखाने का काम किया गया, जिससे वे स्वाभिमान से जिंदगी बसर कर सकें। इनके संगठन का दावा है कि करीब 5 हजार महिलाओं को स्वरोजगार दिलाया गया। हाल ही में खैरात नहीं रोजगार चाहिए के नारे के साथ गैस पीडि़तों से 20 हजार पोस्ट कार्ड प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अब्दुल जब्बार ने भिजवाए थे। उनको इस बात का बेहद दुख था कि यूनियन कार्बाइड के चेयरमेन को उसकी मौत से पहले गैस पीडि़तों के न्याय के लिए भारत सरकार वापस नहीं ला सकी।
सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी लड़ाई
अब्दुल जब्बार ने गैस पीडि़तों के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। पीडि़तों के हक की लड़ाई में पहली सफलता 1988 में मिली जब सर्वोच्च न्यायालय ने गुजारा भत्ता देने का निर्णय सुनाया। उसके बाद फरवरी 1989 में भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच भोपाल समझौता हुआ। इसके मुताबिक घायलों को 25-25 हजार और मृतकों को एक-एक लाख मिला। इसके बाद प्रोरेटा पर घायलों को 25-25 हजार और मृतकों के परिजनों को एक-एक लाख अतिरिक्त मिला। उनके संगठन की लड़ाई के चलते ही वर्ष 2010 में भोपाल के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत ने यूनियन कार्बाइड के अफसरों को दो-दो वर्ष की सजा सुनाई, मगर इस पर अब तक अमल नहीं हुआ है।
लगातार होती रही बैठकें
गैस पीडि़तों के लिए एक तरफ उनकी न्यायालयीन लड़ाई जारी है तो दूसरी ओर उनका संगठन सड़क पर उतरता रहता है। शाहजहांनी पार्क इस बात का गवाह है जहां 1986 से हर मंगलवार और शनिवार को गैस पीडि़त अपनी आवाज बुलंद करते रहे हैं। हालांकि बाद में सिर्फ शनिवार को बैठक होने लगी।

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