राजा जनक दोनों भाई बैठ कर अपनी कन्याओं का कन्यादान कर चुके हैं। कन्यादान में पिता कन्या के ऊपर से अपने अधिकारों का त्याग करता है। अब से अधिकार का क्षेत्र सिमट जाता है और कर्तव्य बढ़ जाते हैं। मान्यता यह है कि बेटी अब से दूसरे कुल की लक्ष्मी हुई, अब उसके प्रति विशेष सम्मान का भाव आना चाहिये।
कुछ असंस्कारी अपवादों को छोड़ दें, तो लोक अपनी इस मान्यता को पूरी पवित्रता के साथ निभाता है। एक सामान्य पिता अपनी कुंवारी कन्या को भले कभी डांट देता हो, पर विवाह के बाद वह कठोर वचन बोलने से बचता है। विवाहित बेटी की सलाह का मूल्य भी पहले से अधिक हो जाता है, अब उसकी बात काटने से बचता है पिता।
कुंवारी कन्या के लिए वस्त्रादि लेने में पिता भले कंजूसी कर दे, विवाह के बाद यह कंजूसी नहीं की जाती… क्योंकि पिता को अब केवल कर्तव्य याद होते हैं, अधिकार नहीं। कन्या की भूल पर सुधार के लिए थोड़े कटु वचन बोल सकने का अधिकार अब उसके नए संसार के बुजुर्गों को है… लोक में अधिकारों का यही दान कन्यादान कहलाता है शायद!
पिता ने कन्या को अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर दिया, अब उन्हें अपने नए जीवन में प्रवेश करना है। अग्नि के समक्ष सात फेरों के साथ सात वचन ले कर सिया-राम एक हो गए। अब सिंदूरदान की विधि होनी है। सनातन विवाह में दो ही महत्वपूर्ण दान होते हैं, कन्यादान और सिंदूरदान! एक में पिता अपने अधिकारों का दान करता है, और दूसरे में पति पत्नी को अपनी प्रतिष्ठा में भागीदार बनाता है।
कन्या अपने माथे पर सौभाग्य के चिन्ह के रूप में सिंदूर धारण करती है। यह अपने माथे पर पति की प्रतिष्ठा को धारण करने जैसा होता है। विवाह के बाद पति की सामाजिक प्रतिष्ठा उसकी पत्नी के व्यवहार से भी तय होती है। किसी पुरुष की पत्नी यदि असामाजिक, अनैतिक व्यवहार करे तो पति की प्रतिष्ठा धूमिल होती है, पर किसी स्त्री का पति यदि अनैतिक कर्म करे तो इससे उस स्त्री की सामाजिक प्रतिष्ठा प्रभावित नहीं होती। बाली और रावण जैसे नराधमों के कुकर्मों का प्रभाव तारा और मंदोदरी की प्रतिष्ठा पर नहीं पड़ा, वे उस युग में समाज की श्रेष्ठ स्त्रियों में गिनी जाती रहीं।
जनकपुर के उस दिव्य मण्डप में राम चारों भाइयों ने सिंदूरदान कर दिया। मिथिला की सौभाग्यशाली स्त्रियां मंगल गा रही थीं। समस्त देवगण आकाश में हाथ जोड़े खड़े अपने आराध्य का विवाह देख रहे थे। विवाह संपन्न हुआ, स्त्रियां वर-वधुओं को मण्डप से निकाल कर अन्य विधियों के लिए महल ले गईं।
संध्या के समय राजा दशरथ अपने सम्बन्धियों के साथ भोजन करने मण्डप पधारे। उनके आगे परोसी गयी छप्पन भोग की थाली, और स्त्रियों ने शुरू की गाली… “होंगे राजा दशरथ चक्रवर्ती सम्राट! नरेश होंगे तो अयोध्या के होंगे, इस आंगन में वे समधी हैं। और यहाँ उन्हें दासियाँ भी मीठी गाली सुना सकती हैं। उनकी स्त्रियों की बुराई निकाल निकाल कर उन्हें छेड़ सकती हैं। उन्हें सुनना होगा, बल्कि उसके बाद गाली देने वाली स्त्रियों को उपहार भी देने होंगे… यह लोक है! लोक का अपना शासन है! उसे सम्राट भी अमान्य नहीं कर सकते।” राजा दशरथ मुस्कुराते हुए सुन रहे थे।
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एक दिन में सम्प्रदाय बन जाते होंगे, एक दिन में कानून की किताबें लिख दी जाती होंगी, पर संस्कृति एक दिन में नहीं बनती। उसे कोई बनाता नहीं, वह स्वतः बनती है। जैसे आम के खट्टे टिकोरों में धीरे धीरे बस जाती है मिठास, उसी तरह धीरे धीरे
लम्बी यात्रा कर के बनती है कोई संस्कृति! समय की नदी अपनी धारा से अशुद्धि को किनारों की ओर फेंकती जाती है, और धारा में बचता है आनन्द, प्रेम, करुणा, दया, सम्मान, सद्भाव, प्रतिष्ठा… इसी तरह समझ गढ़ता है एक संस्कृति! जहां सबका सम्मान होता है, सबके अधिकार होते हैं, सबकी प्रतिष्ठा होती है।
एक सामान्य दासी को इतना बड़ा अधिकार कि वह चक्रवर्ती सम्राट दशरथ को बिना भयभीत हुए छेड़ सके, गाली दे सके, उस महान संस्कृति ने दिया था जिसका नाम सत्य-सनातन है।
क्रमशः