विदेशी व्यक्ति आप से बात करता है, तो लगता है कि हमें हिंदी ही नहीं आती। अगर आप उनसे पांच मिनट चर्चा करेंगे, तब पता चलेगा कि वह बात नहीं कर रहे, वार्तालाप कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें यही सिखाया गया है। यह कहना है वरिष्ठ लेखक तेजेंद्र शर्मा का। वह विश्व रंग में हिस्सा लेने आए हैं।
जो भाषा जैसी है, वैसी ही बढ़ती है
उन्होंने कहा कि जो भाषा जैसी है, वैसी ही बढ़ती है। साहित्य की अपनी भाषा अलग होती ही है। हमें भाषा और बोली में फर्क रखना ही होगा। बोली निरंतर बदलती रहती है, लेकिन भाषा में गिने-चुने नए शब्द आते हैं, जो अलग किस्म की प्रक्रिया है।
एक नई हिंदी बनाने के चक्कर में हिंदी का कहीं पूरा नाश न हो जाए। उन्होंने कहा कि मेरी मूल भाषा पंजाबी रही है। मैंने महज छठवीं से आठवीं तक ही हिन्दी पढ़ी है। लेखन की शुरुआत अंग्रेजी कहानी से की थी। मेरी पत्नी इंदु हिंदी में पीएचडी कर रही थीं। वह उपन्यास आदि लेकर घर आती थीं। मैं उन्हें पढ़ता था, जिससे मुझे हिंदी लेखन की प्रेरणा मिली।
सम्मेलन उत्सव की तरह
तेजेंद्र शर्मा कहते हैं कि सम्मेलनों से भाषा का कभी भला नहीं हुआ। यह साहित्य के उत्सव होते हैं। इनके आयोजन उत्सवधर्मी दिखने के लिए होते हैं। जरूरत इस बात की है कि हिंदी के ऐसे सॉफ्टवेयर डेवलप किए जाएं, जो रोजगार पैदा करें। दुख है कि हिंदी में स्पेलिंग चैक सॉफ्टवेयर तक नहीं है।
हम अब नई हिन्दी की बात करते हैं। हमारे देश में समस्या है कि लेखक रोटी खाकर साहित्य लिखता है, जबकि अमेरिका-यूरोप में रोटी के लिए। किसी भी विषय पर शोध के बिना लिखेंगे तो कौन पढऩा पसंद करेगा। हिन्दी पुस्तक में महज 350 किताबों की ब्रिकी को पहला संस्करण नाम दे दिया जाता है।
सम्मेलन उत्सव की तरह
तेजेंद्र शर्मा कहते हैं कि सम्मेलनों से भाषा का कभी भला नहीं हुआ। यह साहित्य के उत्सव होते हैं। इनके आयोजन उत्सवधर्मी दिखने के लिए होते हैं। जरूरत इस बात की है कि हिंदी के ऐसे सॉफ्टवेयर डेवलप किए जाएं, जो रोजगार पैदा करें। दुख है कि हिंदी में स्पेलिंग चैक सॉफ्टवेयर तक नहीं है।
हम अब नई हिन्दी की बात करते हैं। हमारे देश में समस्या है कि लेखक रोटी खाकर साहित्य लिखता है, जबकि अमेरिका-यूरोप में रोटी के लिए। किसी भी विषय पर शोध के बिना लिखेंगे तो कौन पढऩा पसंद करेगा। हिन्दी पुस्तक में महज 350 किताबों की ब्रिकी को पहला संस्करण नाम दे दिया जाता है।