* मलप्पा पारसप्पा अष्टगे और श्रीमतीजी के घर जन्मे इस बालक का नाम विद्याधर रखा गया।
* विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गांव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से भरा रहा।
* खेलने-कूदने की उम्र में वे माता-पिता के साथ मन्दिर जाते थे।
* धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना उनके जीवन का हिस्सा था।
* उनकी यही आदतें आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थीं।
* पढ़ाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूरा करके ही संतुष्ट होते थे।
* बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने , उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साय पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान में बैठ जाते थे।
* मन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करते थे।
* उनके दृढ़निश्चय और संकल्पवान होने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक बार उन्हें बिच्छु ने काट लिया। लेकिन असहनीय दर्द होने पर भी वह रोए नहीं बल्कि उसे नजरअंदाज कर दिया। यही नहीं इतनी पीड़ा सहते हुए भी उन्होंने अपनी दिनचर्या में शामिल धार्मिक-चर्या के साथ ही सभी कार्य वैसे ही किए जैसे हर दिन नियम से करते रहे।
कन्नड़ भाषा में हाई स्कूल तक पढ़ाई
* गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड़ में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमीं कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया।
* चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कडी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे।
* उन्होनें शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा ग्रहण की।
* इस तरह वे आज भी गुरु- शिष्य परम्परा के विकास में सतत सहयोग दे रहे हैं।
विद्याधर से आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज तक का सफर
* त्याग, तपस्या और कठिन साधना का मार्ग पर चलते हुए आचार्यश्री ने महज 22 साल की उम्र में 30 जून 1968 को अजमेर में आचार्य ज्ञानसागर महाराज से मुनि दीक्षा ली।
* गुरुवर ने उन्हें उनके नाम विद्याधर से मुनि विद्यासागर की उपाधि दी।
* 22 नवंबर 1972 को अजमेर में ही गुरुवर ने आचार्य की उपाधि देकर उन्हें मुनि विद्यासागर से आचार्य विद्यासागर का दर्जा दिया।
* १जून १९७३ में गुरुवर के समाधि लेने के बाद मुनि विद्यासागर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की पद्वी के साथ जैन समुदाय के संत बने।
कठिन तपस्या
* गृह त्याग के बाद से ठंड, बरसात और गर्मी से विचलित हुए बिना आचार्य श्री ने कठिन तप किया।
* उनका त्याग, तपस्या और तपोबल ही था कि जैन समुदाय ही नहीं बल्कि सारी दुनिया उनके आगे नतमस्तक है।
3 दिन की समाधि के बाद 18 फरवरी को निधन
* संत विद्यासागरजी 17 फरवरी शनिवार यानि माघ शुक्ल अष्टमी को पर्वराज के अंतर्गत उत्तम सत्य धर्म के दिन रात्रि 2:35 बजे ब्रह्मलीन हुए। राष्ट्रहित चिंतक गुरुदेव विद्यासागरजी ने विधिवत सल्लेखना बुद्धिपूर्वक धारण कर ली थी। उन्होंने पूर्ण जागृतावस्था में आचार्य पद का त्याग किया। 3 दिन के उपवास गृहण करते हुए आहार एवं संघ का प्रत्याख्यान कर दिया था। प्रत्याख्यान व प्रायश्चित देना बंद कर दिया था और मौन धारण कर लिया था।
* आचार्य ने 6 फरवरी यानि मंगलवार को दोपहर शौच से लौटने के उपरांत साथ के मुनिराजों को अलग भेज दिया था। इसके बाद निर्यापक श्रमण मुनिश्री योग सागरजी से चर्चा करते हुए संघ संबंधी कार्यों से निवृत्ति ले ली। उसी दिन आचार्य पद का त्याग कर दिया था।
* उन्होंने आचार्य पद के लिए प्रथम मुनि शिष्य निर्यापक श्रमण मुनि श्री समयसागरजी महाराज को योग्य समझा। उन्हें आचार्य पद दिए जाने की घोषणा भी कर दी थी जिसकी विधिवत जानकारी कल दी जाएगी।
* श्रीजी का डोला गुरुवार को चंद्रगिरी तीर्थ डोंगरगढ में दोपहर 1 बजे निकाला जाएगा। आचार्य विद्यासागरजी को चन्द्रगिरि तीर्थ पर ही पंचतत्व में विलीन किया जाएगा।