भोपाल. दर्जनों योजनाएं और तमाम कोशिश। बावजूद तस्वीर डरावनी है। प्रदेश में प्रत्येक बरस सात लाख से ज्यादा नवजात जन्म की पहली वर्षगांठ से पहले दुनिया छोड़ जाते हैं। वजह कुपोषण और जन्म के बाद घटिया स्वास्थ्य सेवाओं के कारण सेहत से खिलवाड़। एक कारण असुरक्षित प्रसव भी। कुल मिलाकर नवजातों की मौत की गिनती ऐसी बढ़ी कि देश में मासूमों की जिंदगी पहले बर्थ-डे से पहले खत्म होने के मामले में मध्यप्रदेश पहले नंबर पर दर्ज है।
सर्वे में आया सच
दरअसल नवजातों की मौत के तमाम मामले सामने आने के बाद केंद्र सरकार के रजिस्ट्रार जनरल कार्यालय ने बीते वर्ष सभी प्रदेशों में नवजातों की जन्म-मृत्यु के आकड़े जुटाए। सर्वे रिपोर्ट खंगालने के बाद चौंकाने वाली हकीकत सामने आई है। मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा यानी प्रति एक हजार पर 52 बच्चे पहला जन्मदिन मनाने से पहले मां की गोद सूनी कर देते हैं। शहरी इलाकों में स्थिति कुछ बेहतर है, जहां यह आकंड़ा 35 है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में प्रत्येक एकहजार बच्चों पर 67 बच्चों की मौत कुछ और ही कहानी बताती है।
प्रसव का जोखिम और कुपोषण है वजह
सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचल में संस्थागत प्रसव नहीं होने के कारण बड़े पैमाने पर नवजातों की मौत होती है। इसके अलावा जन्म के बाद टीकाकरण तथा अन्य जांच-पड़ताल नहीं होने के कारण भी तमाम नवजात दुनिया छोड़ जाते हैं। शहरी इलाकों में कुपोषण ही मौत की बड़ी वजह बताई गई है।
जापान सबसे बेहतर
नवजातों का ख्याल रखने के मामले में दुनिया की तस्वीर देखें तो जापान सबसे आगे है। जहां प्रत्येक एक हजार बच्चों पर सिर्फ दो बच्चों की जन्म के कुछ दिन बाद मौत होती है। मध्यप्रदेश का आंकड़ा उम्दा स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए मोहताज बांग्लादेश के आंकड़े के बराबर है।
आंकड़ों की जुबानी
अभी प्रदेश की जनसंख्या सात करोड़ 27 लाख हैं। राज्य में सालाना 1.40 करोड़ बच्चे पैदा होते हैं। सर्वे के मुताबिक प्रत्येक एक हजार नवजातों में 52 की मौत हो जाती है। इस हिसाब से 1.40 करोड़ बच्चों में सात लाख अठ्ठाइस हजार बच्चों की मौत जन्म के एक साल के अंदर होती है।
इनका कहना है…
सर्वाधिक मृत्यु एक महीने से कम आयु में होती है। इसके लिए जननी की सुरक्षा जरूरी है। गर्भधारण से लेकर प्रसव तक माता का और फिर बच्चे की सुरक्षा का ध्यान रखा जाए तो शिशु मृत्यु दर में कमी आएगी।
– डॉ. सुधीर पंड्या, शिशु रोग विशेषज्ञ
हम इस दिशा में निरंतर प्रयास कर रहे हैं, यह वर्ष 2014 के आंकड़े हैं। अब स्थिति बेहतर हुई है। उम्मीद है कि अगली रिपोर्ट में प्रदेश टॉप टेन में नहीं रहेगा।
– डॉ. पंकज शुक्ला, डिप्टी डायरेक्टर, एनएचएम
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