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भरतपुर

गौरवशाली इतिहास…गांव-गांव में मंदिर व अखाड़ा निर्माण का महाराजा सूरजमल ने चलाया था अभियान

महाराजा सूरजमल का बलिदान दिवस आज: बाल्यकाल में ही सैन्य शिक्षा एवं शासन प्रबंधन की सीख चुके थे बारीकियां

भरतपुरDec 25, 2020 / 10:59 am

Meghshyam Parashar

गौरवशाली इतिहास...गांव-गांव में मंदिर व अखाड़ा निर्माण का महाराजा सूरजमल ने चलाया था अभियान

गौरवशाली इतिहास…गांव-गांव में मंदिर व अखाड़ा निर्माण का महाराजा सूरजमल ने चलाया था अभियान

भरतपुर. महाराजा सूरजमल का बलिदान दिवस शुक्रवार को किला परिसर स्थित महाराजा सूरजमल स्मारक पर मनाया जाएगा। महाराजा सूरजमल एक दूरदर्शी शासक थे। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि वह अच्छे शासक के साथ ही वह प्रजा के स्वास्थ्य व सुरक्षा का भी विशेष ध्यान रखते थे। उन्होंने गांव-गांव में मंदिर, अखाड़ा निर्माण का अभियान चलाया था। इसके अलावा अन्य समाजों के लिए भी धार्मिक स्थलों का निर्माण कराते हुए उन्हें बराबर का सम्मान दिया था। कर्नल लॉर्ड लैक ने अपने लेख में लिखा था कि 1805 में ब्रिटिश सेना ने अटलबंध गेट पर जब आक्रमण किया तो अंग्रेजी सेना की ओर से किले पर छोड़े जा रहे तोप के गोले दीवारों को भेद नहीं पा रहे थे। सभी गोले किले के ऊपर चक्र में समा रहे थे।
लोहागढ़ और हमारा समाज पुस्तक के लेखक घनश्याम होलकर के अनुसार महाराजा सूरजमल का जन्म उस दौर में हुआ था जब भारत देश के हालात अच्छे नहीं थे। उन्होंने बाल्यकाल में ही सैन्य शिक्षा और शासन प्रबंध की बारीकियों को सीख लिया था। सूरजमल ने अपनी फौज का नए ढंग से विस्तार किया। भरतपुर की सेना के जवानों के मानस में राष्ट्रप्रेम के निर्झर अविरल सदा बहते रहते थे। भरतपुर के दरबारी कवि सूदन अपने ग्रंथ सुजान चरित्र में युद्धों का वर्णन करते हुए लिखते हैं।
जब होत असवार भुव भार के निवारक,
बंदी सरदार बदनेस को कुंवार।
तब सिनसिनवार दै,अवारिया अगार और,
खुंटैला जुझार वीर चहार अपार।
पुनि सोगरवार भिनवार नौहवार सूर,
सवै इकसार खिनवार रुतवार।
सब साजे नर बार,भीर भोंगरे उदार चढ़े,
गूदरे गुरार दै दरेर दै सवार।।27।।
कवि ने जवाहर सिंह, नाहर सिंह, रतन सिंह, रणजीत सिंह बीनारायण सिंह, खुशाल सिंह, लाल सिंह, सूरत राम सिंह पाखरिया, वाला सोगरिया, केहरी सिंह, शिव सिंह, श्याम सिंह, ब्रजसिंह, हठीसिंह सहित अनेक वीरों का अपनी रचना में उल्लेख किया है। ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास पुस्तक में प्रभु दयाल मित्तल लिखते हैं कि महाराजा के सैन्य अभियानों में ब्रज के समस्त उत्साही वीरों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। गोकुल राम गौर, अनूप सिंह, सुखराम, शंभू, कृपाराम महंत राम कृष्ण कटारा, घमंडी राम पुरोहित, हरिनारायण, गंगाराम हरजी गूजर, दल्ला मेव, बहादुर गडरिया, ठाकुर दास सैंगर, मोकम सिंह, राजेंद्र गिरी, रामचंद्र तोमर, समर सिंह चंदेल, मेघ सिंह चौहान का उल्लेख ऐतिहासिक ग्रंथों में होता है। रुपराम कटारा एवं मोहन सिंह समेत कई विद्वान प्रशासनिक व्यवस्थाओं में सहयोग प्रदान करते थे।
महाराजा के पास 15 हजार सुप्रशिक्षित घुड़सवार सेना, 25 हजार पैदल सेना, विभिन्न प्रकार की 300 तोपें, पांच हजार घोड़े एवं 100 हाथी सेना में शामिल थे। 18 वीं शताब्दी में महाराजा सूरजमल उत्तर भारत में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरे थे। उन्होंने विषम परिस्थितियों में भारत की राजधानी के समीप रहकर उत्तर भारत की राजनीति का संचालन किया था। मुगल और मराठा शासकों के बीच उन्होंने अपने राज्य को न केवल सुरक्षित रखा अपितु उसका तेजी से विस्तार भी किया था। उनके राज्य में आगरा, अलीगढ़, बल्लभगढ़, बुलंदशहर, धौलपुर, एटा, हाथरस, मेरठ, मथुरा, रोहतक, होडल, गुडगांव, फर्रुखनगर, मेवात और रेवाड़ी शामिल थे।
महाराजा के शासनकाल में डीग, कुम्हेर, भरतपुर एवं वैर में मजबूत किले तथा सुंदर भवन बनवाए गए। वल्लभगढ़, वृंदावन, गोवर्धन, सहार आदि स्थानों पर कलात्मक निर्माण हुए। इनके निर्माण में एक हजार बैलगाड़ी, दो सौ घोड़ा गाड़ी, एक हजार पांच सौ ऊट गाड़ी और पांच सौ खच्चरों को काम में लिया गया था। इसमें करीब 20 हजार स्त्री-पुरुषों को रोजगार के साधन उपलब्ध हुए थे। ये रचनात्मक कार्य निरंतर करीब छह दशक तक चलते रहे।
60 वर्ष तक नहीं रुका था अजेय दुर्ग लोहागढ़ का निर्माण

भरतपुर दुर्ग के बारे में महाराजा सूरजमल पुस्तक में नटवर सिंह लिखते हैं कि इस किले को बनाने का काम सन् 1732 ई. में आरंभ हुआ। एक बार शुरू हो जाने के बाद निर्माण कार्य 60 वर्ष तक रुका नहीं था। मुख्य किले बंदीयां आठ वर्षों में पूरी हो गई। इनमें दो खाई भी थीं। रूपांतरण और विस्तार का कार्य सूरजमल के पोत्र के प्रपोत्र महाराजा जसवंत सिंह के राज्य काल तक चलता रहा। यह किला कई दृष्टिकोण से असाधारण रचना थी । बाहर वाली खाई लगभग 250 फुट चौड़ी और 20 फुट गहरी थी। इस खाई की खुदाई से जो मलवा निकला वह उस 25 फुट ऊंची और 30 फुट मोटी दीवार को बनाने में लगा। इसने शहर को पूरी तरह घेरे हुए था। इसमें 10 दरवाजे भी थे इनमें से किसी भी दरवाजे से घुसने पर रास्ता एक पक्की सड़क पर पहुंचता था। इसके परे खाई थी (सुजान गंगा ) जो 175 फुट चौड़ी और 40 फुट गहरी थी। इस खाई में पत्थर और चूने का फर्श किया गया था। दोनों ओर दो पुल थे जिन पर होकर किले के मुख्य द्वारों पर पहुंचना होता था। पूर्वी दरवाजे के किबाड़ आठ धातुओं के मिश्रण से बने थे। महाराजा जवाहर सिंह इसे दिल्ली से विजय चिन्ह के रूप में लाए थे। मुख्य किले की दीवारें 100 फुट ऊंची थी और उनकी मोटाई 30 फुट थी इन पर आठ बुर्ज बनाए गए थे सभी पर बड़ी-बड़ी तोपें लगी थीं। भरतपुर दुर्ग की महिमा का उल्लेख करते हुए सुंदरलाल अपनी पुस्तक भारत में अंग्रेजी राज मे लिखते हैं कि जब भरतपुर के महाराजा रणजीत सिंह और इंदौर के शासक यशवंत राव होलकर प्रथम ने सन् 1805 ईस्वी में मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था तो उस समय ब्रिटिश सेना के सिपाहियों को दुर्ग पर पीतांबर पहने धनुष बाण, गदा एवं वंशी लिए स्वयं प्रभू दुर्ग की रक्षा करते हुए दिखाई दिए थे। भरतपुर किले की दिवारों ने अंग्रेजों के गर्व को चूर कर दिया था। महाराजा ने साहित्य कला को बढ़ावा दिया उनके दरबार में कवि सूदन, सोमनाथ अखेराम, शिवराम, कलानिधि, सुधाकर, हरवंश, उदयराम, कवि दत्त एवं कवि देव सहित अनेक कवियों को भरतपुर राज का संरक्षण प्राप्त था। 25 दिसंबर सन् 1763 ई. को एक सैन्य अभियान के दौरान शहादरे के निकट महाराजा ने हिंडन नदी को पार किया जहां उनका मुकाबला नजीब खां की सेना से हुआ। इसी बीच हुए हमले में महाराजा सूरजमल ने वीरगति प्राप्त कर अपना नाम इतिहास के पृष्ठों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित कर दिया।

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