बता देें कि वर्ष 1984 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस आजमगढ़ में कोई चुनाव नहीं जीती है। इस दौरान हुए हर चुनाव में कांग्रेस कमजोर होती दिखी है। अब तो पार्टी के प्रत्याशी उलेमा कौंसिल के मुकाबले में भी पिछड़ने लगे है। वर्ष 2017 का विधानसभा चुनाव और 2019 का लोकसभा चुनाव यहां पार्टी लड़ी ही नहीं। लोकसभा में अखिलेश के लिए प्रत्याशी नहीं उतारा और 2017 के विधानसभा में सपा से गठबंधन में यहां एक भी सीट नहीं मिली थी। ऐसे में पार्टी के कार्यकर्ता और नेताओं का मनोबल टूटा हुआ है।
रहा सवाल आजमगढ़ जिले का तो यह तीन दशक से सपा बसपा का गढ़ बना हुआ है। वर्ष 1989 में पहली बार यहां आजमगढ़ सीट बसपा जीती थी। इसके बाद से वर्ष 2009 तक जिले की एक लोकसभा सीट पर हमेशा उसका कब्जा रहा है। वर्ष 2014 में पहली बार लालगंज सीट बीजेपी के खाते में गयी तो बसपा को यहां हार का सामना करना पड़ा था। जबकि आजमगढ़ सीट पर मुलायम सिंह ने जीत हासिल की है। विधानसभा में 2012 के चुनाव को छोड़ दे तो सपा बसपा में बराबर की टक्कर देखने में मिली है। वर्ष 2012 में अखिलेश लहर में सपा ने यहां नौ और बसपा ने एक सीट जीती थी। वर्ष 2017 में जब पूरे प्रदेश में यूपी की लहर थी और पार्टी 325 सीट जीतने में सफल रही उस समय भी आजमगढ़ में सपा बसपा का ही प्रभाव देखने को मिला। सपा ने पांच और बसपा ने चार सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा के खाते में वर्ष 1996 के बाद पहली बार एक सीट आयी।
जबकि संगठन के तौर पर बीजेपी पिछले कुछ वर्षो में काफी मजबूत हुई है और जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो उसके प्रत्याशी जमानत बचाने के लिए तरसते रहे हैं। पिछला दो चुनाव पार्टी लड़ी भी नहीं है। पार्टी में हमेंशा से गुटबाजी चरम पर रही है। पूर्व सांसद संतोष सिंह का गुट हमेशा से भारी पड़ा है। पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव के निधन के बाद उनका गुट लगभग समाप्त हो गया है लेकिन नये जिलाध्यक्ष की राह फिर भी आसान नहीं है। कारण कि उन्हें पूर्व जिलाध्यक्ष हवलदार सिंह के खेमे का माना जाता है। वहीं दूसरी तरफ पार्टी में मठाधीशी भी खूब हाबी है। संगठन मेें अपने लोगों को जगह दिलाने और टिकट के लिए कांग्रेस में बवाल आम बात है। ऐसे में प्रवीण सिंह के लिए इन चुनौतियों से निपटकर संगठन को खड़ा करना काफी मुश्किल होगा।