तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह बने थे राममंदिर आंदोलन के मुख्य खलनायक
वोट बैंक के लिए जिन्होंने वर्ग संघर्ष की आग देश में लगाई….सैकड़ों नौजवानों की बलि लिया…रुबिया सईद के बदले खूंखार आतंकियों को रिहा किया…कश्मीर के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर बर्बर अत्याचार देखते रहे…श्रीराम जन्मभूमि के सवाल पर मुस्लिम तुष्टीकरण में डूबे रहे…वीपी सिंह एक ऐसे प्रधानमंत्री के रुप में विदा हो रहे थे, जो वामपंथियों की कठपुतली से अधिक कुछ नहीं थे।
कौन सा काम किया है उन्होंने सात महीनों में ? एकबार भी वीपी सिंह ने अयोध्या जाकर नहीं देखा कि 40 सालों से वहां पर पूजा चल रही है। नमाज आज तक अदा नहीं की गई है। टूटा-फूटा ढांचा है। जहां रामजी हैं विराजमान वहां कौन सी चीज है ? जिसे हम मस्जिद कह सकें? लेकिन जनता को भ्रमित करने के लिए कभी स्वरुपानंद जी को खड़ा कर दिया कि तिथि वगैरह ठीक नहीं है।…राजीव गांधी हो या वीपी सिंह चिंतन दोनों का एक ही है-चुनाव जीतना। दोनों कांग्रसी पृष्ठभूमि से हैं। उनका वोट बैंक बनाने के लिए सेकुलरिज्म की सोच एक ही है। हां इतना जरूर है कि राजीव गांधी बोलते नहीं थे लेकिन वीपी सिंह बोलते हैं, बातचीत का प्रस्ताव देते हैं लेकिन उस बातचीत से निकलता कुछ नहीं है।
यह बातें ‘इतवारी’ पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह रज्जू भईया ने कहा था। उन्होंने कहा कि अशोक सिंहल जी वगैरह ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को तीन बातें स्पष्ट कर दिया है। तिथि, स्थान और मंदिर के प्रस्तातिव मॉडल में बदलाव पर कोई बातचीत नहीं होगी। इसके अलावा आपके पास और कोई बात हो तो कर लिजिए। इसके बाद भी वे सिर्फ तिथि टालते रहने के लिए बातचीत चलाना चाहते हैं लेकिन इस बारे में वीपी सिंह को स्पष्ट कर दिया गया है कि आपकी प्रतिष्ठा के लिए चार माह का समय दिया गया। उसके बाद भी तीन माह और अधिक हो गया। हमने शिलापूजन किया, पैसा इकट्ठा किया अब हमारी भी प्रतिष्ठा का सवाल है।
आइए अब राजनीति में वीपी सिंह की भूमिका पर चलते हैं 11 अप्रैल 1987 की रात नौ बजे होंगे। देश के रक्षा मंत्री वीपी सिंह प्रधानमंत्री निवास पहुंचे। प्रधानमंत्री राजीव गांधी से संक्षिप्त मुलाकात हुई और अपना त्याग पत्र सौंप दिए। प्रधानमंत्री निवास से निकलते समय शायद वीपी सिंह ने सोचा भी नहीं होगा कि उनके इस्तीफे पर जनता की इतनी तीखी प्रतिक्रिया होगी कि राजीव गांधी के हाथ से सत्ता निकल जाएगी। भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ी हुई उनकी जंग में जनता जुड़ती चली गई और वे प्रधानमंत्री बन गए।
कुल संख्या के एक तिहाई सांसद नहीं होने के बावजूद वीपी सिंह अल्पमत सरकार के प्रधानमंत्री बने। चुनाव के दौरान अनेक जनसभाओं में वीपी सिंह मंच पर जाने से इसलिए मना कर देते थे कि वहां उनको बीजेपी का झंडा दिख जाता है। भारतीय जनता पार्टी के प्रति घृणा में डूबे वीपी सिंह ने सत्ता का स्वाद चखने के लिए उसी भाजपा का समर्थन हासिल किया और देश में अस्थिरता पैदा कर दिया। चाहे कश्मीर हो, आरक्षण हो या राममंदिर वीपी सिंह वामपंथियों के इशारे के गुलाम बने रहे।
IMAGE CREDIT: तत्कालीन PM वीपी सिंह बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का… राजीव गांधी सत्ता से बाहर हो चुके थे। जनता को भ्रष्टाचार और पारदर्शिता का सपना दिखाकर राष्ट्रीय मोर्चा की अल्पमत सरकार बन चुकी थी। चुनाव बाद राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन की बैठक प्रधानमंत्री तय करने के लिए हुई। हरियाणा के चौधरी देवीलाल ने वीपी सिंह का नाम प्रस्तावित कर दिया। वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने भी लेकिन राह इतना आसान नहीं था। श्रीराम जन्मभूमि का मुद्दा हावी था और 86 लोक सभा सीटों पर भाजपा अपने चुनाव चिन्ह, घोषणा पत्र और झंडे के आधार पर जीतकर आई थी। राजीव गांधी सरकार में केंद्रीय गृह मंत्री बूटा सिंह राजस्थान में कैलाश मेघवाल से चुनाव हार चुके थे। कारण कि बूटा सिंह के खिलाफ ऐसा माहौल बन गया था कि वह मंदिर बनने में रोड़ा अटका रहे हैं। यहां तक कि चौधरी देवीलाल जैसे हरियाणा के सशक्त नेता के चुनाव क्षेत्र में भी नारा लगने लगा था-
भाजपा ने अपने 1989 चुनाव के घोषणा पत्र में कहा था कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के पुर्ननिर्माण की अनुमति न देकर, जैसा कि 1948 में भारत सरकार ने सोमनाथ मंदिर का निर्माण करके किया था, इसने (कांग्रेस) तनावों को बढ़ाया है और सामाजिक भाईचारे को क्षति पहुंचाई है। वीपी सिंह ने भाजपा का घोषणा पत्र पढ़ा भी नहीं था और कहा कि जो मुद्दा कभी था ही नहीं, उसे जबरदस्ती उठाना भाजपा नेतृत्व की असफलता है। लेकिन यह बाद की बात है, पहले तो वीपी सिंह ने राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा कि वह अयोध्या की समस्या के महत्व को समझते हैं और उसका समाधान निकालने को प्राथमिकता देंगे।
IMAGE CREDIT: प्रतीकात्मक तस्वीर(संत सम्मेलन)27-28 जनवरी, 1990 प्रयाग में संत सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसी सम्मेलन में संतों ने मुहूर्त निकाला और राममंदिर निर्माण कार्य प्रारंभ करने की घोषणा कर दी। संतों ने कहा कि आगामी 14 फरवरी 1990 से मंदिर निर्माण शुरू किया जाएगा, अगर सरकार को वार्ता करनी हो तो छह फरवरी से पहले कर ले। इसके बाद विहिप के महत्वपूर्ण नेताओं ने दिल्ली में डेरा डाल दिया कि सरकार की तरफ से वार्ता का आमंत्रण आता है तो फौरन बातचीत किया जा सके। सरकार की तरफ से वार्ता की तिथि तय कर दी गई और विहिप और प्रधानमंत्री वीपी सिंह के बीच बातचीत प्रारंभ हुई।
प्रधानमंत्री ने कहा कि इस विषय पर अपने सहयोगियों से बातचीत करना चाहते हैं, इसलिए हमे कुछ समय दिया जाए।” केंद्रीय गृह सचिव शिरोमणि शर्मा ने 7 फरवरी को विश्व हिंदू परिषद को लिखकर दे दिया कि ‘…सरकार इस समस्या का समाधान आपसी सहमति के आधार पर बातचीत के माध्यम से निकालना चाहती है। सरकार यह अपील करती है कि कोई ऐसा कार्य न किया जाए जो सर्वमान्य हल या न्यायालय के निर्णय में बाधक बने। इस समस्या के समाधान के लिए सभी संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श करने के लिए हमे कुछ समय की आवश्यक्ता है।’
इसके बाद प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपील किया कि इस विषय में संबंधित सभी पहलुओं पर विचार करने के लिए एक समिति गठन का सुझाव देता हूं। गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद, वित्त मंत्री मधु दंडवते और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव प्रस्तावित समिति में सरकार का प्रतिनिधित्व करेंगे। मै आशा करता हूं कि आगामी चार महीने में इस समस्या का सर्वमान्य हल निकल आएगा। समिति के अन्य सदस्यों के नामों की घोषणा एक सप्ताह के भीतर कर दी जाएगी।
विहिप ने बुलाई बैठक प्रधानमंत्री को दिया गया समय प्रधानमंत्री की अपील के बाद विहिप ने सर्वाधिकार समिति की बैठक बुलाई। जिसमें संतों के बीच तीखी बहस हुई कि सरकार को समय दिया जाए अथवा नहीं दिया जाए। इस बैठक में महंत अवैधनाथ, परमहंस रामचंद्रदास, विष्णु हरि डालमिया, अशोक सिंहल, बद्रीप्रसाद तोषनीवाल, महंत नृत्य गोपाल दास, दाउदयाल खन्ना, विजयारोजे सिंधिया, श्रीशचंद्र दीक्षित, देवकी नंदन अग्रवाल और गुमानमल लोढ़ा मौजूद रहे। फैसला हुआ कि जो समस्या 450 सालों से उलझी हुई है उसे हल करने के लिए यदि प्रधानमंत्री चार माह का वक्त मांग रहे हैं तो देना चाहिए।
नोट- राममंदिर आंदोलन में प्रधानमंत्री वीपी सिंह की भूमिका को कल भी जारी रखेंगे।
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