समझौते के बाद राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा है कि यह समझौता भारत को विश्व को एक महत्वपूर्ण राष्ट्र बनाता है। हमारी भारत के साथ गहरी भागीदारी आगे भी जारी रहेगी। उन्होंने इस समझौते को दोनों देशों के बीच प्रगति की दिशा में एक नया कदम करार दिया था।
संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत गणराज्य के बीच हस्ताक्षर किए गए 1-2-3 समझौते को यूएस-भारत नागरिक परमाणु समझौते या भारत-अमरीका परमाणु समझौते के रूप में जाना जाता है। इस समझौते के तहत भारत अपनी नागरिक और सैन्य परमाणु सुविधाओं को अलग करने के लिए राजी हो गया। इसके साथ ही तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह और अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के संयुक्त बयान से भारत अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के तहत अपनी सभी नागरिक परमाणु सुविधाओं को अलग करने पर सहमत हो गया। इस सौदे से जुड़ी सभी कानूनी प्रक्रियाओं को पूरा करने में तीन साल का समय लगा। भारत ने इस समझौते को लागू करने के बाद अपने 35 नागरिक परमाणु प्रतिष्ठानों पर चरणबद्ध तरीके से आईएईए से निरीक्षण का काम शुरू कर दिया। 1 अगस्त, 2008 को आईएईए ने निरीक्षण के बाद सुरक्षा उपायों को मंजूरी दे दी। इसके बाद संयुक्त राज्य अमरीका ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) से नागरिक परमाणु व्यापार शुरू करने के लिए भारत को छूट देने की वकालत की थी। उसके बाद भारत के लिए अन्य देशों से असैनिक परमाणु प्रौद्योगिकी और ईंधन हासिल करने का रास्ता साफ हुआ।
18 जुलाई, 2005 में भारत और अमरीका के बीच ऐतिहासिक परमाणु समझौता हुआ था। भारत के तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह और अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसके बाद मार्च, 2006 में जब जॉर्ज बुश भारत की यात्रा पर आए तो सैनिक और असैनिक परमाणु रिएक्टरों को अलग करने पर भी सहमति बनीं। इसके बाद अमरीकी संसद ने हेनरी हाइड एक्ट पारित किया लेकिन करार को अमली जामा पहनाने से संबंधित न्यूक्लियर डील 1-2-3 समझौते पर काफी अरसे तक सहमति नहीं बन पाई। यही कारण है कि 18 जुलाई, 2006 को इसे अंतिम रूप दिया गया।
न्यूक्लियर डील होने के बावजूद दो बड़े मुद्दे थे जिन पर दोनों देशों में सहमति नहीं बन पाई थी। भारत की मांग थी कि भविष्य में अगर वह परमाणु परीक्षण करता है, तो उसका इस समझौते पर कोई असर न पड़े। इसके लिए अमरकी कानून में बदलाव की जरूरत पड़ी जिसके लिए अमरीका तैयार नहीं था। इसके अलावा भारत परमाणु संयत्रों में इस्तेमाल हुए ईंधन पर पूरा हक चाहता था। यानी कि बिजली पैदा करने के बाद ईंधन का क्या इस्तेमाल होता है, यह भारत खुद तय करना चाहता था। इन सभी मुद्दों पर अंतिम फैसला होने के बाद ही इसे अंतिम रूप दिया गया था।