संस्था के अध्यक्ष पं. धर्मवीर शर्मा ने बताया कि यह नाटक पारसी शैली की परंपरा को जीवंत रखे हुए हैं। यह नाटक भक्तों की आस्था से जुडा है। प्रचार मंत्री अमृत खत्री ने बताया कि 1958 में जब पहली बार इस नाटक का मंचन रंगमंच पर किया तो उस समय राजा हरीशचंद्र व वीर अभिमन्यू नाटक होते थे, जिनकी बुङ्क्षकग से 200 से 300 रुपए मिलते थे, लेकिन भर्तृहरि नाटक के पहले ही शो में एक ही दिन में 2000 रुपए की बुङ्क्षकग हुई थी। नाटक के तत्कालीन निदेशक श्यामलाल सक्सेना ने कहा कि यह तीन दिन खेला गया। पहली बार यह नाटक सामान्य पर्दे पर ही दिखाया गया।