दुनिया के सबसे बड़े गांव और फतेहपुर सीकरी के सिकरवारों की राजधानी गहमर में चौरासीः एक अद्भुत संस्मरण, देखें वीडियो
ऐतिहासिक, पुरातात्विक और पांडुलिपियों के आधार पर यह साबित किया है कि फतेहपुर सीकरी पर सिकरवारों का शासन रहा है। खानवा युद्ध (1527) में सीकरी पर बाबा धामदेव का शासन था।
डॉ. भानु प्रताप सिंह वर्ष 1999-2000 में फतेहपुर सीकरी (आगरा, उत्तर प्रदेश) पर शोध के दौरान पता चला कि सिकरवारों में चौरासी की परंपरा है। राजा धामदेव अपने खास सामंतों, मित्रों और सिपहसालारों के साथ चौरासी का आयोजन करते थे। इसमें सामूहिक भोज के साथ राज्य और सिकरवारों के उत्थान पर चर्चा की जाती थी। युद्ध के दौरान चौरासी का खास महत्व था। फतेहपुर सीकरी में चौरासी खंबे इसी का प्रतीक हैं। समय के साथ चौरासी नए रूप में है। अब चौरासी किसी की मृत्यु के उपरांत श्रद्धाजलि सभा के रूप में होती है। एक ही वंश के सिकरवार बंधु आते हैं। सामाजिक उत्थान पर चर्चा करते हैं। चौरासी के बहाने पूरे देश के सिकरवार राजपूत एकता का प्रदर्शन करते हैं।
आमंत्रण मिलना भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक डॉ. डीवी शर्मा का एक मार्च, 2019 को फोन आया। बताया कि उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गहमर गांव में चौरासी का आयोजन है। इसमें चलना है। यह भी कहा कि मैं भी आ रहा हूं। मैं उत्साहित था कि जिस चौरासी के बारे में शोध के दौरान पता चला था, उसमें प्रत्यक्ष भाग लेने का अवसर मिलेगा। राजा धामदेव के वंशज कर्नल धर्मराज सिंह (डीआर सिंह के नाम से प्रसिद्ध) ने वॉट्सऐप पर चौरासी का आमंत्रण भेजा। फिर उन्होंने फोन पर चौरासी में आने का आग्रह किया। बताया कि अभिमन्यु राव की श्रद्धांजलि सभा के दौरान ही चौरासी का आयोजन है। उनके पुत्र परीक्षित राव ने यह कार्यक्रम रखा है। फिर तीन मार्च को ‘क्षत्रिय राजवंश बड़गूजर-सिकरवार-मढ़ाड़’ पुस्तक के लेखक डॉ. खेमराज राघव का फोन आया। उन्होंने कहा कि मैं भी चल रहा हूं। आपको आगरा से ले लूंगा। मेरे लिए यह सोने पर सुहागा जैसी स्थिति थी। डॉ. खेमराज राघव राजस्थान के अजमेर में रहते हैं और शिक्षा विभाग में हैं। हिन्दी और संस्कृत के विद्वान हैं।
आगरा से गाजीपुर तक पहुंचने में 14 घंटे लगे डॉ. खेमराज राघव 4 मार्च, 2018 को सुबह आठ बजे आगरा आ गए। मैं उनके वाहन में सवार होकर चौरासी के लिए चल दिया। तीन घंटे में आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे से लखनऊ पहुंच गए। लखनऊ में दोपहर का भोजन किया। फिर वहां से गहमर तक पहुंचने में सर्दी में भी पसीना आ गया। मार्ग में रायबरेली, प्रतापगढ़, मछली शहर, भदोही, जौनपुर आदि स्थान मिले। राष्ट्रीय राजमार्ग भी मिले। अधिकांश मार्ग संकरे थे। राजमार्ग भी दुर्दशा का शिकार थे। कहीं बने, कहीं अधबने। धूल उड़ रही थी। शिवरात्रि के चलते सड़क पर शिव बारात निकल रही थी। यातायात बाधित था। जैसे-तैसे गाजीपुर पहुंचे। गाजीपुर से गंतव्य स्थल गहमर गांव करीब 32 किलोमीटर दूर पूर्व में गंगा किनारे है। गहमर तक पहुंचना भी टेढ़ी खीर है। मार्ग बहुत खराब है। निर्माण कार्य चल रहा है। आशा है कि कुछ वर्षों में अच्छा हो जाएगा। चार मार्च को सुबह आठ बजे निकले थे और रात्रि में 10 बजे पहुंचे। मात्र 14 घंटे लगे।
सुबह पांच बजे ही आंख खुल गई गहमर गांव जमानिया विधानसभा क्षेत्र में आता है। यह विश्व का सबसे बड़ा गांव है। सिकरवार राजपूतों की राजधानी है। सवा लाख आबादी है। करीब 15 हजार युवा सेना में हैं। यहां से विधायक हैं सुनीता सिंह। वे भारतीय जनता पार्टी की नेता हैं। चौरासी का आयोजन सुनीता सिंह के श्वसुर अभिमन्यु राव की स्मृति में हुआ है। हमारे ठहरने का इंतजाम विधायक निवास के बराबर बने भवन में दूसरी मंजिल पर था। प्रशांत सिंह और अजय सिंह हमें वहां मिले। औपचारिक परिचय के बाद भोजन किया। गहमर की सीमा बिहार के बक्सर से लगती है। इस कारण बोली और भोजन पर बिहार का प्रभाव है। भोजन में सर्वाधिक प्रिय व्यंजन चावल है। डॉ. खेमराज राघव चावल नहीं खाते हैं। उनके लिए रोटियां बनाई गईं। भोजनोपरांत हम अपने कक्ष में आ गए। रात्रि में ही ‘क्षत्रिय राजवंश बड़गूजर-सिकरवार-मढ़ाड़’ पुस्तक का अवलोकन किया। रात्रि 12 बजे के बाद हम सो गए। सुबह पांच बजे ही आँख खुल गई। इसका कारण चौरासी देखने की उत्सुकता थी।
चौरासी के प्रति उत्साह प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत्त होने के बाद हम बाहर आए तो प्रशांत सिंह ने देख लिया। पूछा कि क्या चाहिए। हमने इशारे में जलपान की बात कही। उन्होंने कहा कि वहीं भिजवा रहे हैं। थोड़ी देर बाद ही एक सेवक जलपान के साथ हाजिर हो गया। हमने जलपान किया और 10 बजे कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गए। हमने देखा कि चौरासी में शामिल होने के लिए विभिन्न पट्टी के लोग बैंडबाजों के साथ आ रहे थे। सबके झंडे अलग थे। अधिकांश लोग साफा बांधे हुए थे। सबका स्वागत लड्डू और पानी से किया जा रहा था। सबको यथास्थान बैठाया गया।
कर्नल डीआर सिंहः एक अद्भुत व्यक्तित्व इस बीच कर्नल डीआर सिंह से मिलने का मन हो रहा था। उन्हें फोन किया। कर्नल साहब ने कहा कि थोड़ी देर में आ रहा हूं। कर्नल साहब अपनी पीठ पर एक थैला लादे हुए युवाओं की तरह चल रहे थे। आज भी वे सैनिक की तरह बोलते हैं और व्यवहार करते हैं। उन्होंने फतेहपुर सीकरी के सिकरवारों पर गहन शोध किया है। पूरे देश में भ्रमण किया है। ऐतिहासिक, पुरातात्विक और पांडुलिपियों के आधार पर यह साबित किया है कि फतेहपुर सीकरी पर सिकरवारों का शासन रहा है। खानवा युद्ध (1527) में सीकरी पर बाबा धामदेव का शासन था। युद्ध में पराजय के बाद वे गहमर (यहां कभी गहन वन था, जिसमें छिपने की गुंजाइश थी। बाद में यही गहमर हो गया) आ गए। कर्नल डीआर सिंह ने इस बारे में तथ्यात्मक जानकारी दी। आपको यह बताना भी जरूरी है कि दिसम्बर 1971 के भारत-पाक युद्ध में कर्नल डीआर सिंह ने लोगेवाला (जैसलमेर, राजस्थान) में अद्भुत वीरता दिखाई थी। उनकी इस वीरता पर बॉर्डर फिल्म बनी है। कर्नल डीआर सिंह को सिकरवारों के इतिहास का विस्तृत जानकारी है। विवाद की स्थिति में उनकी बात को ही प्रमाण माना जाता है। उन्होंने हमारा परिचय विधायक सुनीता सिंह से कराया। उनके पति परीक्षित राव से भी मिलवाया।
कामाख्या मंदिर, गंगा और चौसा युद्ध स्थल कर्नल डीआर सिंह ने हमें गहमर गांव के दर्शन कराए। सबसे पहले वे हमें मां कामाख्या के मंदिर में ले गए। यह वही मूर्ति है, जिसे सिकरवार फतेहपुर सीकरी से लेकर आए थे। यह चमत्कारिक मूर्ति है। उन्होंने यह भी बताया कि मूर्ति के सामने पार्क में बाबा धामदेव की आदमकद प्रतिमा स्थापित की जाएगी। प्रतिमा बनवाने के लिए उन्होंने डॉ. खेमराज राघव से आग्रह किया। मंदिर के पास ही वह टीला है, जहां बाबा धामदेव रहते थे। यहां से हम गंगा के नारायण घाट पहुंचे। यह बड़ा ही रमणीक स्थल है। गंगा की निर्मलता देखते बनती है। गंगा के प्रति हमारी आस्था है, इस कारण भी श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। फिर उन्होंने वह स्थान दिखाया, जहां गहमर के युवा सेना में जाने की तैयारी करते हैं। गहमर के 15 हजार युवा सेना में हैं। हम जिस मार्ग से जा रहे थे, उसे मुगल रूट कहा जाता है। कहते हैं कि सिकरवारों की खोज में मुगल इस मार्ग का उपयोग करते थे। गंगा में नाव से गश्त करते थे। किसी भी सिकरवार को मुगल पकड़ नहीं पाए। इस कारण था घना जंगल। यहीं पर वह स्थान है, जहां हुमायूं को एक भिश्ती ने गंगा में डूबने से बचाया था। इसके बदले हुमायूं ने भिश्ती को एक दिन का बादशाह बना दिया था। भिश्ती ने बादशाह के रूप में चमड़े का सिक्का चला दिया था। आगरा के दीवानी परिसर में झुनझुन कटोरा स्मारक है। इसके बारे में कहा जाता है कि यह उसी भिश्ती का मकबरा है। फिर हमें वे ले गए उत्तर प्रदेश- बिहार की सीमा पर स्थित चौसा। चौसा कर्मनासा नदी के किनारे पर है। यहीं पर 15 जून, 1539 को शेरशाह सूरी और हुमायूं के बीच युद्ध हुआ था। सिकरवारों न शेरशाह सूरी का साथ दिया था। हुमायूं पर हमला किया। गहमर के सिकरवारों ने मुगल सेना को लूट लिया था। हुमायूं अपनी जान बचाकर भिश्ती की मदद से गंगा पार जा सका था। कहा जाता है कि सिकरवार ने खानवा मैदान में बाबर से हार का बदला 12 साल बाद चौसा में लिया था।
मंच पर स्वागत कर्नल साहब के प्रति आभार प्रकट करते हुए हम फिर से कार्यक्रम स्थल पर आ गए। यहां हमारी भेंट हुई मुरैना के महेन्द्र सिंह से। वे राजपूती शान के साथ आए हुए थे। यह बात अलग है कि वे छह घंटे जाम मं फँसे रहे। चौरासी की सभा शुरू हो चुकी थी। फिर हमें मंच पर बुलाया गया। माल्यार्पण कर स्वागत किया गया। हमें मंच से विचार व्यक्त करने का भी अवसर दिया गया। मंच पर बुजुर्ग सिकरवार विराजमान थे। कुछ अनबन की बात भी सुनाई दी। सबने सामाजिक उत्थान की बात कही। परीक्षित राव ने शहीदों को श्रद्धांजलि देने के अतिथियों का स्वागत किया। अभय सिंह, दिनेश बाबा, धनुषधारी सिंह, भोजपुरी गायक आदि ने विचार रखे। यह भी कहा गया कि सिकवारों आखिर कब तक बलि का बकरा बनते रहेंगे। किसी ने यह भी कहा कि इतिहास घास की रोटी खाने वाले महाराणा प्रताप की जयकार करता है।
चौरासी में संख्या उत्साहवर्धक नहीं चौरासी का 1000 साल पुरानी परंपरा को सिकरवार आज भी निभा रहे हैं। उनके कुलगुरु गंगेश्वर उपाध्याय थे। उनकी बात बाबा धामदेव मानते थे। उनके सुझाव पर ही गहमर में सिकरवारों ने तलवार के बल पर झंडा गाड़ा। चौरासी में सबसे पहले भोजन ब्राह्मणों को कराया गया। ब्राह्मणों को दक्षिणा भी दी गयी। इसके बाद अन्य लोगों ने भोजन किया। मुझे यह महसूस हुआ कि चौरासी में सिकरवारों ने मंथन पर समय कम दिया। अधिकांश समय स्वागत और भोजन में चला गया। चौरासी में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा से करीब 10 हजार लोग शामिल थे। गहमर से लगे करीब 50 गांवों के प्रतिनिधि मौजूद थे। गहमर की आबादी करीब सवा लाख है। इस हिसाब से 10 हजार की संख्या उत्सावर्धक नहीं है। फिर भी आयोजक परीक्षित राव को साधुवाद है कि 10 हजार लोगों के लिए जलपान और भोजन की सुंदर व्यवस्था की। आने के साथ जाने वालों को भी जलपान का इंतजाम था। चाहे जितने पैकेट जलपान के ले जाएं।
11.30 घंटे में वापसी हम गहमर से पांच मार्च, 2019 को शाम 5.30 बजे निकले। रात्रि का समय था। यातायात का दबाव नहीं था। इसका लाभ यह हुआ का छह मार्च को सुबह 5 बजे आगरा आ गए। मैं शुक्रगुजार हूं कर्नल डीआर सिंह, डॉ. डीवी शर्मा और डॉ. खेमराज राघव का, जिनके कारण चौरासी के आयोजन में शिरकत कर सका।
अखबारों में प्रकाशन नहीं आगरा आकर मैंने छह मार्च और सात मार्च का गाजीपुर का ई-संस्करण देखा। कहीं भी इतने बड़े आयोजन की एक लाइन तक नहीं मिली। पांच मार्च को यह तो खबर थी कि चौरासी का आयोजन होगा, लेकिन आयोजन के बाद की खबर नहीं थी। मुझे लगता है कि आय़ोजकों ने कोई विज्ञप्ति और फोटो नहीं भेजा, इसी कारण प्रकाशन नहीं हो सका। शहर से 32 किलोमीटर दूर कार्यक्रम में जाना जरा मुश्किल होता है और ऊपर से सड़क बहुत खराब है। मुझे लगता है कि आयोजक मीडिया कवरेज पर ध्यान देते तो उनका संदेश लाखों लोगों तक पहुंचता।
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