भावनाओं का पलड़ा भारी होता है साक्षी मिश्रा और अजितेश का प्रकरण सामाजिक से अधिक राजनीतिक हो गया है। साक्षी के पिता विधायक हैं, जाहिर है कि प्रभावशाली हैं और इसी कारण यह प्रकरण अधिक उछल रहा है। वैसे प्रेम विवाह तो पहले से होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। अगर मानसिक रोग विशेषज्ञ के तौर पर देखें तो हमें पता होना चाहिए कि व्यक्ति का दिमाग हमेशा एक जैसा नहीं रहता है। परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। वित्तीय समस्या हमेशा मायने नहीं रखती है। जब परिवार में उपेक्षा हो और बाहर से भावनात्मक सहारा मिले तो सद्भावना पैदा होना शुरू हो जाती है। प्रभाव में आ जाते हैं। इस द्वंद्व के बीच दिमाग कुछ संकेत देने लगता है। यह ऐसा समय होता है जब व्यक्ति खुद पर काबू नहीं रख पाता है। जहां से भावनात्मक सहयोग मिल रहा है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है।
कुछ कहना जल्दबादी होगी किसी भी व्यक्ति का मन हमेशा एक जैसा नहीं रहता है, फिर चाहे वह परिवार में हो या बाहर हो। मन परिवर्तनशील रहता है। समय की मांग के अनुसार स्वस्थ निर्भरता है तो संबंध स्थाई होता है। जब तक परिवार और उन लोगों के साथ में बैठकर पूरी परिस्थति न समझ लें, तब तक यह कहना संभव नहीं है कि साक्षी मिश्रा को कोई मानसिक रोग है। परिस्थियों को समझना जरूरी है। यह ठीक है कि साक्षी मिश्रा ने समाचार चैनलों पर बहुत सारी बातें कही हैं, फिर भी यह जान लेना जरूरी है कि हर चीज पब्लिक प्लेटफार्म पर नहीं आ पाती है। आप कह सकते हैं कि साक्षी मिश्रा की परिवार में उपेक्षा थी, लेकिन हमें यह नहीं पता कि किस स्तर की थी। अजितेश से संबंध भावनात्मक बने या उसने कोई जाल फेंका, यह भी हमें नहीं पता है। अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
हारमोन में बदलाव से व्यवहार प्रभावित हमारे दिमाग में चलने वाली गतिविधियों से हम नियंत्रित होते हैं। दिमाग में रासायनिक बदलाव होते हैं। जब बदलाव बहुत अधिक होता है तब मुश्किल खड़ी हो जाती है। हारमोन में बदलाव से हमारा व्यवहार भी प्रभावित होता है। यह व्यवहार बता देता है कि व्यक्ति कुछ अलग करने वाला है। घर वालों को बच्चों के व्यवहार पर भी नजर रखनी चाहिए कि अचानक कोई बड़ा परिवर्तन तो नहीं आ रहा है। जैसे कोई बच्चा बहुत अधिक बोलता है और अचानक चुप हो जाए या कम बोलने लगे तो समझ जाएं कि कहीं न कहीं समस्या है। लड़कियां जब दुराचार की शिकार होती हैं तो उनके साथ यही होता है। मैं फिर कहूंगा कि साक्षी से बिना बातचीत के मानसिक रोगी बताना जल्दबाजी होगी।
संस्कारों से दूर जाने का नतीजा इस तरह की घटनाएं पहले भी होती रही हैं। हमें समझना चाहिए कि मां-बाप हों या बच्चे, संबंधों में संतुलन बनाए रखना जरूरी है। जरूरी नहीं है कि घर से भाग जाने का निर्णय प्यार के चक्कर में ही किया जाए। कई बार बच्चे जॉब करने के लिए घर छोड़ देते हैं, क्योंकि माता-पिता बाहर नहीं भेजना चाहते हैं। पिता की सख्ती भी घर से भागने को मजबूर कर देती है। आज के दौर में बच्चे अपने अधिकारों की बात करने लगे हैं, कर्तव्यों की नहीं। साफ संकेत है कि कहीं न कहीं हम भारतीय मूल्यों और संस्कारों से दूर जा रहे हैं। संस्कार बचपन से ही देने चाहिए।