आप जानते हैं कि संजय सिन्हा दयालु हैं। उनके सामने कोई रोने लगे तो उससे अधिक रुलाई संजय सिन्हा को आने लगती है। खैर, साल भर उनकी उस बेरोजगारी की पीड़ा को मैंने बहुत करीब से देखा, महसूस किया। मैंने खुद उनकी नौकरी के लिए कई जगह कोशिश भी की। और एक दिन उन्हें दुबारा नौकरी मिल गई।
नौकरी मिली तो उन्होंने खूब पूजा-पाठ करवाया, मिठाई बंटवाई।
जब उन्हें दोबारा नौकरी मिल गई, सब ठीक हो गया तो उनके स्वभाव में बदलाव आने लगा। उनके भीतर अहंकार आने लगा।
मैंने उनसे पूछा कि इस पर आपकी प्रतिक्रिया क्या होती है?
उन्होंने कहा कि प्रतिक्रिया क्या होगी? मैं भी सिर हिला देता हूं। उनका अभिवादन स्वीकार कर लेता हूं।
मैंने कहा कि आपको इसकी जगह ऐसा कहना चाहिए – कह दूंगा।
“कह दूंगा? क्या कह दूंगा? किससे कह दूंगा?”
मैंने परिचित से कहा कि आपको तो पता ही है कि संजय सिन्हा मां की कहानियां सुन-सुन कर बड़े हुए हैं। जीवन का पाठ उन्होंने कहानियों के माध्यम से सीखा है। तो सुनिए एक कहानी।
जब उसके पास पैसे हो गए तो लोगों ने उसे पूछना शुरू कर दिया। उससे दुआ-सलाम करने लगे। पर आदमी ज़रा नहीं बदला था। उस पर दौलत का नशा बिल्कुल नहीं चढ़ा था। लोग उससे राम-राम करते तो वो बुदबुदाता, “कह दूंगा।”
मेरे परिचित ने कहानी के बीच में ही मुझे टोका।
“कह दूंगा? क्या कह दूंगा? संजय जी, पहेली न बुझाइए।”
मैंने कहा थोड़ा धैर्य रखिए। अभी कहानी पूरी नहीं हुई है। मां की सुनाई कहानी है, ठीक से समझने की ज़रूरत पड़ेगी। मां ने मुझे जीवन का पाठ कहानियों से पढ़ाया है।
“अच्छा आगे सुनाइए। फिर क्या हुआ?”
आदमी को कोई राम-राम कहता, दुआ-सलाम करता तो आदमी कहता कि कह दूंगा।
अजीब ही बात थी। लोग अभिवादन करते, वो सिर हिला कर धीरे से कहता कि कह दूंगा।
एक दिन एक आदमी ने उससे पूछ लिया कि भैया, लोग आपको इतना पूछते हैं, पूजते हैं, नमस्ते कहते हैं तो आप कहते हैं कि कह दूंगा। इसका क्या मतलब है?
“तिजोरी से कहते हैं? पर तिजोरी से क्यों?”
“भाई, लोग मुझसे राम-राम नहीं करते। अगर मुझसे करते तो पहले भी मुझे पूछते। मेरा हाल-चाल पूछते। मुझे राम-राम कहते। पर नहीं। जब मेरे पास पैसा आया, मैं अमीर बना तब लोगों ने मुझे पूछना शुरू किया। वो मेरे शुभचिंतक नहीं। वो मेरे दोस्त भी नहीं। दोस्त तो वो होता है, जो किसी भी हालत में पूछे। राम-राम करे। पर ये सभी लोग, जो मुझे पूछते हैं, वो असल में मेरी दौलत को पूछते हैं। उसे ही राम-राम कहते हैं। तो मैं उनके राम-राम के संदेश को तिजोरी तक पहुंचा देता हूं। उसे बता देता हूं कि फलां ने आपको नमस्ते कहा है।”
इतनी छोटी-सी कहानी सुना कर मैं चुप हो गया।
मां ने भी जब ये कहानी मुझे सुनाई थी, तो इतना ही सुना कर चुप हो गई थी। मां को पता था कि उनका संजू बेटा कहानी के मर्म को समझ गया है।
कहानियां समझने के लिए ही होती हैं।