विधानसभा चुनाव का समय है। सीटें और मतदाता वही हैं। अधिकांश कार्यकर्ता भी वही हैं। अंतर है तो सिर्फ चुनावी माहौल में। पहले की तरह घरो की दीवारे चुनावी नारों अपीलों से बदरंग नहीं हुई। यानि संपत्ति विरूपण अधिनियम का अधिक पालन किया जा रहा है। शहर गांव के गली मोहल्लों में बैनर पोस्टर और पर्चे नहीं चिपके है। सब कुछ साफ सुथरा सा है। राजनीतिक दल चुनाव प्रचार के लिए पहले की तरह अधिक गाडिय़ों और लाउड स्पीकर का भी इस्तेमाल भी नहीं कर रहे हैं। न ही वार्ड और मोहल्लों में चुनाव कार्यालय और शोर शराबा है। भाजपा, कांग्रेस आदि दलों के घोषित प्रत्याशी अलग अंदाज मे प्रचार प्रसार मे जुटे हैं। अलग अलग समाजों की बैठकें आयोजित कर जनसंपर्क कर रहे हैं। नामांकन प्रक्रिया के बाद से ही चुनाव प्रसार जोड़ पकडऩे लगा है।
हर पार्टी का सामान्य माहौल
इस चुनाव से पहले प्रचार प्रसार और बैनर पोस्टरों को देखकर लोग किसी प्रत्याशी के पक्ष मे लहर का अंदाजा लगातेे थे। कई मतदाता इसी लहर और दिखावे से जुड़ जाते थे। बदले माहौल मे यह अंदाजा लगाना काफी मुश्किल है हर पार्टी मे प्राय: एक सा माहौल है। मतदाता खामोश है और चुनाव विश्लेषक असमंजस में दिखाई दे रहे है।
मंच पर बैठे तो खर्च जुड़ेगा- उन सभी चुनावी सभाओं का खर्च प्रत्याशी के खाते मे जुड़ेगा, जिसमे मंच पर वह खुद मौजूद है। हालांकि अभी तक बड़ी सभाएं नहीं हुई है मगर इसको लेकर चुनाव आयोग सख्त है।
अब ये नहीं हो रहा
गाडिय़ों मे प्रचार प्रसार, हंगामा, बाइक रैली, दीवारों पर स्लोगन, वोट की अपील, बैनर-पोस्टर, वार्ड मे चुनाव कार्यालय, यहां तक की मोहल्लो में रैलियों का शोरगुल भी नहीं सुनाई दे रहा है।
यह हो रहा है
डोर टूू डोर जनसंपर्क, सामाजिक बैठकें, मैनेजमेंट सोशल मीडिया का सहारा पुराने पैटर्न से हटकर प्रत्याशियो ने इस बार नए रूप में लिया है।