आतंक और उग्रवाद के खिलाफ सख्त रुख के कारण उकसावे में आकर सेना स्वार्थवश जस्टिस ईसा के खिलाफ हो गई। 8 अगस्त 2016 को क्वेटा के सिविल अस्पताल में हुए आत्मघाती हमले की जांच करने वाले आयोग की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने आतंकवाद रोधी कानून लागू कर आतंकी संगठनों पर तुरंत पाबंदी लगाने की मांग उठाई थी। इस हमले में 74 जानें गई थीं। इनमें ज्यादातर वकील थे।
ईसा ने 56 दिन में यानी 6 अक्टूबर 2016 को आयोग की रिपोर्ट दे दी थी। साथ ही अफसोस जताया था कि तत्कालीन आंतरिक मामलों के मंत्री चौधरी निसार अली खान ने तीन प्रतिबंधित संगठनों ‘सिपाह-ए-सहबाÓ पाकिस्तान, मिल्लत-ए-इस्लामिया और अहले सुन्नत वल जमात के प्रमुख मौलाना मुहम्मद अहमद लुधियानवी से मुलाकात की थी। रिपोर्ट में उन्होंने सरकार से भी जवाब मांगा था। यह पाक सेना को हैरान करने वाला कदम था, जिसने कभी पाक आतंकियों के खिलाफ कार्यवाही नहीं की। इसलिए सेना ने जस्टिस ईसा के खिलाफ ही अभियान छेड़ दिया और मान लिया कि जस्टिस ईसा ने अपनी रिपोर्ट के निष्कर्ष में सेना को दोषी ठहराया है.
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रिपोर्ट में उन्होंने पाक सरकार को दोषी ठहराते हुए लिखा था कि ‘यह देश उन लोगों ने बनाया है जो उपमहाद्वीप में मुसलमानों के हालात बेहतर बनाना चाहते हैं और हर धर्मावलम्बी की स्वतंत्रता बनाए रखना चाहते हैं। दुर्भाग्यवश पाख्ंडियों और अतिवादियों ने एकता, विश्वास और अनुशासन का संदेश विकृत कर दिया, इसे नकारा जाना चाहिए।Ó लेकिन पाकिस्तान में ठीक उल्टा हो रहा है। वहां सेना उग्रवाद और आतंकवाद को संरक्षण दे रही है, जिससे देश की छवि खराब हो रही है जबकि जस्टिस ईसा को मौलिक स्वतंत्रता की मांग उठाने की कीमत चुकानी पड़ रही है।