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Success Mantra: गोस्वामी तुलसीदास से जानें लाइफ के सक्सेस मंत्र, पढ़िए NRI राइटर की पाती

Success Mantra: आज एक आम आदमी बहुत कम उम्र जीता है। धर्म, ज्ञान और साहित्य के विश्व मनीषी गोस्वामी तुलसीदास 112 वर्ष जीये। आखिर क्या कारण रहा, एक प्रतिष्ठित NRI लेखक से सक्सेस मंत्र (Success Mantra) जानिए :

नई दिल्लीAug 10, 2024 / 07:07 pm

M I Zahir

Tulsidas jayanti

Success Mantra: आधुनिकता के फेर में आप और हम तुलसीदास के महत्व को शायद न समझ रहे हों, लेकिन विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों ने अपने मन मंदिर में राम, तुलसी और भारतीयता को जीवित रखा है।
भारतवंशियों के घर घर में राम चरित मानस मिल जाएगी। रामायण और रामचरितमानस न केवल भारत में बल्कि कंबोडिया, थाईलैंड, श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भी पढ़े जाते हैं।

12 रचनाएं लिखी

गोस्वामी तुलसीदास मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के महान रामभक्त इव कवि थे। उन्होने रामचरितमानस और हनुमान चालीसा जैसे विश्व प्रसिद्ध ग्रंथो की रचना की है। इन्हें आदिकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। उन्होंने 12 रचनाएं लिखी हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जयंती पर सीधे नीदरलैंड से राजस्थान के अलवार जिले के प्रवासी भारतीय रामा तक्षक से सक्सेस मंत्र (Success Mantra) जानिए, उन्हीं के शब्दों में:

बचपन का नाम रामबोला

गोस्वामी तुलसीदास का जन्म ( Tulsidas jayanti ) 11 अगस्त 1511 में सोरोन में हुआ था। उनके बचपन का नाम रामबोला था। उनकी माँ का नाम हुलसी देवी और पिता का नाम आत्माराम था। उनके गुरू नरहरिदास थे। गुरुकुल में रहते हुए, गुरु के कहे तुलसीदास ने चारों वेदों, उपनिषदों और ज्योतिष का अध्ययन किया। वाल्मीकि रामायण को पढ़, उसी का चौपाई रूप ‘रामचरितमानस’ अवधी भाषा में लिख दिया। वे एक कवि, एक दार्शनिक, एक समाज सुधारक, एक अनुवादक, एक रहस्यवादी थे। उनके व्यक्तित्व के कई रूप सामने आते हैं। वे भक्ति काल के शिरोमणि हैं।

अस्सी घाट बनारस

उनकी मृत्यु 30 जुलाई 1623 को अस्सी घाट बनारस पर हुई यानी वह 112 बरस जीये। यह बात बहुत समझने की है। इतनी लम्बी आयु पाना एक बहुत बड़ी सीख की सीढ़ी है।

तन रीढ़ के बल तना खड़ा

गोस्वामी तुलसीदास का शांत, रीढ़ साधे बैठा, माथे पर चंदन का लम्बा तिलक, गले में माला और हाथ में कलम। हमारे ऋषि मुनि सदा कहते आये हैं कि जब भी बैठो देह की रीढ़ सीधी हो। ऋषि मुनि के किसी भी चित्र को देखो। उनका तन रीढ़ के बल तना खड़ा दिखाई देगा। चाहे वे खड़े हों या बैठे। देह की रीढ़ सीधी होगी तो आपके शरीर की ऊर्जा की यात्रा अधिष्ठान से सहस्त्रार की ओर सहज हो जायेगी। आप अपनी ऊर्जा की सजगता का साथ पा जायेंगे। आपको बैठना भर आ जाए। इस बैठने में एक निरन्तरता हो। चार छ: माह रीढ़ सीधी कर के बैठना हो जाए तो जीवन में रूपांतरण घटने लगेगा।

उनकी समझ को छू सकेंगे

तुलसीदास यह उपलब्ध चित्र, भारतीय वैदिक परम्परा और गुरुकुल की याद दिलाता है। जो कि मानवीय देह में अस्तित्व का सुंदरतम स्वरूप है। उनका व्यक्तित्व अस्तित्व की जड़ों में पैठ किये है। गोस्वामी तुलसीदास को समझने के लिए हमें,अपनी देह के तल, सजगता के तल से सामञ्जस्य बनाना पड़ेगा। अपने अंतर के जगत से तालमेल बिठाना पड़ेगा। तभी हम उनकी समझ को छू सकेंगे।

भारत में लगभग साढ़े सात लाख गाँव


भारत में ज्ञान परम्परा का केन्द्र गुरुकुल थे। आँकड़ों को देखें तो पता चलता है कि सन् 1850 तक, भारत में लगभग साढ़े सात लाख गाँव थे। साथ ही इस समय, सात लाख तीस हजार गुरुकुल भी थे। यानि औसतन हर गाँव में एक गुरुकुल था। इन गुरुकुलों में 18 विषय पढ़ाये जाते थे। ये सब तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि भारत में उस समय एक बहुत ही व्यवस्थित और विकसित शिक्षा प्रणाली थी। गुरुकुलों में शिक्षा नि:शुल्क दी जाती थी। इन गुरुकुलों को राजा महाराजाओं का प्रश्रय नहीं था।

देश गुलामी की जंजीरों में

उस समय, उत्तर भारत में 97 प्रतिशत और दक्षिण भारत में पूरी सौ प्रतिशत साक्षरता थी। साक्षरता के ये तथ्य दो अंग्रेज अधिकारियों, जी. डब्ल्यू. लूथर के उत्तरी भारत और थोमस मुनरो3 के दक्षिण भारत के साक्षरता सर्वे पर आधारित हैं। भारत के औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों का एक ही उद्देश्य था। भारत के इस शैक्षणिक ताने बाने को तहस नहस कर, इस देश को गुलामी की जंजीरों में कस देना।

छीना भी बहुत

भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जनक, मैकाले ने तो स्पष्टतः कहा था कि भारत की शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को नष्ट करके ही इस देश को सदा सदा के लिए गुलामी की बेड़ियों में बांँधा जा सकता है। उनका एक ही मत था कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था का सफाया कर, अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का ढाँचा खड़ा किया जाये ताकि अंग्रेजी विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्र, दिखने में भारतीय लगेंगे लेकिन वे अंग्रेजी व अंग्रेजों का हित साधेंगे। इस सोच के साथ अंग्रेज लार्ड मैकाले ने गुरुकुल परंपरा को नष्ट कर दिया। अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा पद्धति और संस्कृति को धराशाही करने में कसर नहीं छोड़ी। अंग्रेजों की शिक्षा ने हमें दिया भी है लेकिन छीना भी बहुत है।

लाज न आवत आपको

तुलसीदास को पढ़ते हुए, अमृत रूपी भक्ति की प्यास पाठक को भी बराबर अनुभूत होती है। तुलसी को पढ़ते हुए उनकी असहायता, उनका छोटापन, उनका समर्पण है। उनसा समर्पण यानि उनसा झुकना यदि किसी के जीवन में घट जाए तो समझो जीवन सत् चित्त आनंद की राह पर है। तुलसी लिखते हैं:
सीय राममय सब जग जानी, करऊं प्रनाम जोरि जुग पानी।
और

निज बुद्धि बल भरोस मोहि नाहीं, तातें बिनय करउं सब पाहीं।

यदि आपको झुकना आ जाये। यदि आपमें समर्पण घट जाए तो अस्तित्व आपके साथ खड़ा हो लेता है।
एक प्रसंग बहुत रोचक है। तुलसीदास की पत्नी का बिन बताए पीहर चले जाना। तुलसीदास का पत्नी के पीछे अचानक आ धमकना। युवावस्था की प्रेम के शिखर की बात है। वे उफनती नदी को पार करके रत्नावली के पास पहुँचे थे। रत्नावली ने अपने पति को यह उलाहना दिया:
लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ ॥
अस्थि, चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
नेकु जो होही राम से, तो काहे भव भीति।।

जीवन का अनुपम उदाहरण

पत्नी की उपरोक्त उक्ति जीवन का बहुत ही अनुपम उदाहरण है। यह उलाहना तुलसीदास के जीवन, उनकी सोच पर बहुत गहरी चोट करता है। उनकी ऊर्जा जो पत्नी प्रेम की ओर बह रही थी उसे सहस्त्रार की ओर मोड़ दिया। यह चोट भी तभी पड़ सकती है जब उलाहना सुनने वाले में समझ हो। सुनने वाला मानसिक रूप से खुला हो तभी किसी के कहे की चोट पड़ सकती है। तभी देह की ऊर्जा की दिशा ऊपर की ओर, संसार से उबरने की ओर, आध्यात्म की ओर चल पड़ेगी।

लट्ठ पहले वार करता है

तुलसीदास की पत्नी रत्नावली की इस एक कही ने, इस एक चोट ने उनकी दिशा और दशा बदल दी। पत्नी के कहे को सुनने और समझने वाले कभी असफल नहीं हुए हैं। इसीलिए अक्सर कहा जाता है कि सफल पुरुष के पीछे नारी का हाथ है। तुलसीदास की निम्न पंक्ति को लेकर उनकी बहुत आलोचना की जाती है :
‘ढ़ोर, गंवार, शूद्र अरु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’

मेरे देखे कुछ लोग इन पंक्तियों को बोल बोल कर, भाषण देकर , केवल ‘ताड़न’ शब्द को लेकर, तुलसीदास के पीछे लट्ठ लेकर, एक प्रतियोगिता की दौड़ में शामिल हुए से लगते हैं कि देखें कौन अपने हाथ में उठाए लट्ठ पहले वार करता है!
तुलसी के उपरोक्त लिखे ये शब्द, उस काल की कोई प्रचलित कहावत भी हो सकती है। जिसे तुलसी ने छंदबद्ध कर लिख दिया हो। हो सकता है कि वे ‘तारन’ शब्द लिखना चाहते हों। गलती से ‘र’ के स्थान पर ‘ड़’, ताड़न लिखा गया हो।
ढ़ोर, शूद्र अरु नारी, ये सब तारन के अधिकारी।

ताड़ने को कैसे कह सकता है ?

यदि तारन अर्थात स्नेह के अधिकारी हैं या सहायता के अधिकारी हैं तो इस वाक्य का पूरा अर्थ ही सकारात्मक हो जायेगा। इस दृष्टि से आलोचकों का हथियाया लट्ठ काम का न रह जायेगा। मेरे देखे जो संत ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’ लिख रहा है। वह जीव को, स्त्री को और शूद्र को ताड़ने को कैसे कह सकता है ? एक समाज सुधारक उन्हें दुत्कारने की क्यों कहेगा ? यह समझने जैसा है।

तुलसीदास को अकबर ने बुलाया था

गोस्वामी तुलसीदास का जन्म मुगल काल में हुआ था, खासकर जब भारत में अकबर का राज्य था। कहते हैं तुलसीदास को अकबर ने बुलाया था। वे बुलावे पर नहीं गये और कहा कि हमारे राम बुलायेंगे तब ही जाऊँगा। इस बात से नाराज अकबर ने तुलसीदास को जेल में डलवा दिया था। जेल में रहते हुए तुलसीदास ने हनुमान चालीसा रच डाली। उनकी सजगता ने कारावास के नर्क को स्वर्ग में बदल दिया। उनके भक्ति भाव का रस टस से मस न हुआ। तुलसी ने कैदी होते हुए कारावास को गीतमय बना दिया।

भारतवंशियों के घर-घर में राम चरितमानस

तुलसी दास कृत रामचरितमानस भारतवंशियों ( NRI News) के घर-घर में मिल जाएगी। शुरुआती तौर पर, 1873 में लल्ला रुख जहाज से अंग्रेजों ने मजदूरों को अनुबंधित कर विदेश भेजा था। ये अनुबंधित मजदूर गिरमिटिया कहलाये। इन गिरमिटिया लोगों के साथ रामचरितमानस धर्म ग्रंथ, विदेशों में यानि फीजी, ट्रिनिडाड टोबेगो, मॉरीशस और सूरीनाम आदि देशों में पहुँची। इन लोगों के विदेश गमन के समय कुछ कपड़े लत्तों की गठरी में रामचरितमानस भी साथ लाये। यह तथ्य यह दर्शाता है कि भक्ति भाव सजगता असमय का, असहाय का सबसे बड़ा सहारा है। यह उन दिनों की बात है जब सोशल मीडिया नहीं था। उन दिनों की लोकप्रियता हृदय में बसती थी।
तुलसी काया खेत है, मनसा भयो किसान,
राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।

राममय होने का अर्थ है अनंत से मिलन। अंतर्मन के विस्तार की विधि कोई तुलसी से सीखे। यह गहरे पानी पैठ की नाईं है।

रामा तक्षक : एक नजर

प्रख्यात प्रवासी भारतीय साहित्यकार रामा तक्षक ( Rama Takshak) का जन्म राजस्थान के अलवर जिले में एक छोटे से गांव जाट बहरोड के सामान्य परिवार में 8 दिसंबर 1962 को हुआ। वे अब तक लगभग तीस देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनके आलेख भारत की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। उन्होंने सप 1983 में, छात्र जीवन में ही तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन, दिल्ली में भी भाग लिया था। उन्हें भारत की विभिन्न भाषाओं के साथ-साथ, इटालियन और डच भाषा का भी अच्छा ज्ञान है। वे इटालियन और डच भाषा से हिंदी में अनुवाद का काम भी करते हैं। इन भाषाओं के हिंदी अनुवाद विश्वरंग व अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
रामा तक्षक साझा संसार, नीदरलैंड साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच के संस्थापक व अध्यक्ष हैं। वहीं भारतीय ज्ञानपीठ, विश्व रंग और वनमाली सृजन पीठ के साथ मिलकर ‘साहित्य का विश्व रंग’ कार्यक्रमों का आयोजन करते रहे हैं। वे नीदरलैंड्स से प्रकाशित साहित्य का विश्व रंग’ पत्रिका के सम्पादक सम्पादक हैं। साथ ही ‘नीदरलैंड्स की चयनित रचनाएं’ उनकी पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। उनके उपन्यास ‘हीर हम्मो’ को राजस्थान साहित्य अकादमी का प्रभा खेतान पुरस्कार मिल चुका है।
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