छुट्टियों का आनंद
सन 1997 में जब अमेरिका आई तो कुछ वर्ष घर की ज़िम्मेदारियों को सम्भालने और कुछ यहां के हिसाब से जीवन शैली को व्यवस्थित करने में निकल गए। फिर बच्चों व परिवार को प्राथमिकता देते हुए बैंक में पार्टटाइम काम करना शुरू किया। बैंक की नौकरी में वैसे तो सब बढ़िया था, लेकिन छुट्टियों की भारी कमी लगती थी, इसलिए जब
बच्चों ने स्कूल जाना शुरू किया तो सोचा कि बैंक की नौकरी छोड़ कर स्कूल में ही नौकरी कर ली जाए, ताकि बच्चों के साथ सर्दी-गर्मी की छुट्टियों का आनंद उठाया जा सके और उन्हें इधर-उधर डे केयर में छोड़ने की तकलीफ़ भी न उठानी पड़े। बस फिर क्या था, बात जब दिमाग़ में बैठ गई तो कुछ दिनों बाद उसका क्रियान्वयन भी हो गया। चंद परीक्षाओं व साक्षात्कारों से सफलतापूर्वक गुजरने के बाद एक सरकारी उच्च-माध्यमिक विद्यालय में पर्मानैंट सब्स्टिट्यूट टीचर की नौकरी सुनिश्चित हुई।
छोटा सा लैपटॉप
सब्स्टीट्यूशन में आप मूलतः एक फ़िलर की तरह कार्य करते हैं। जिस भी कक्षा में मूल अध्यापक या अध्यापिका अनुपस्थित होती है ,उसी कक्षा में आपको पढ़ाना होता है। अमेरिका के हाई स्कूलों में सभी बच्चों व शिक्षकों को स्कूल की तरफ़ से क्रोमबुक या कहिए कि हल्के वजन का छोटा सा लैपटॉप भी मिलता है, जो किताब की तरह आसानी से बस्ते में रोज़ाना लाया ले जाया जा सकता है। किताबों से लेकर हर विषय के नोट्स, होमवर्क व क्लास वर्क यहां तक कि ग्रेड्स और आपकी प्रोग्रस रिपोर्ट तक सब कुछ ऑनलाइन। सब कुछ ऑनलाइन होने से सब्स्टिट्यूट टीचर का कार्यभार बहुत हल्का हो जाता है।
रोज का स्कूल
ख़ैर, अमेरिका के जिस उच्च माध्यमिक विद्यालय में मेरी नौकरी पक्की हुई, उस का समय था सुबह 9:15 से शाम 4:03 बजे तक। मेरी दृष्टि से किसी भी विषय की पढ़ाई में तन्मयता से जुटे रहने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा लंबा समय। मुझे याद है कि हम जब भारत में पढ़ा करते थे तो वहां के सरकारी विद्यालय सात से बारह या फिर साढ़े बारह से साढ़े पांच बजे तक की दो पारियों में चला करते थे। मतलब सिर्फ़ 5 घंटे रोज का स्कूल और यहां तक़रीबन 7 घंटे का।
जानकारी पूरी तरह अछूती
एक फ़र्क़ यह भी है कि अमेरिका में सप्ताह महज़ पांच ही दिनों का होता है और फिर भी गुणा बाक़ी कर के देखने पर विद्यालय में व्यतीत हुए कुल घंटे यहां भारत से ज़्यादा ही पड़ते हैं। जो भी हो, मुझे इस बात की थोड़ी ख़ुशी भी होती है कि मुझे अपने बचपन का बहुत ज़्यादा समय विद्यालयों में नहीं बिताना पड़ा, लेकिन दूसरी तरफ़ यह सोच कर दुख भी होता है कि कितने ही विषयों से मेरी जानकारी पूरी तरह अछूती रह गई।
कार से आना पसंद
विद्यालय में पहले दिन जब पहुंची तो मुख्य द्वार के सामने एक सी दिखने वाली बसों की एक लंबी क़तार दिखाई दी। अमेरिका के सरकारी विद्यालयों में बसों की सेवा विद्यार्थियों को निशुल्क उपलब्ध होती है। हर गली-कूचे में रुक-रुक कर ए. सी.-हीटर की सुविधा से लब्ध बसें विद्यार्थियों को लेकर आती हैं, लेकिन मज़े की बात यह है कि फिर भी हाई स्कूल के ज़्यादातर विद्यार्थी ड्राइविंग लाइसेंस पाते ही अपनी ख़ुद की कार से आना पसंद करते हैं, इसलिए स्कूल के परिसर में फैला बड़ा सा पार्किंग लॉट और उसमें योजनाबद्ध तरीक़े से खड़ी छोटी-बड़ी गाड़ियों का अंबार देखने लायक़ होता है। न के बराबर
यहां यह बताना शायद ज़रूरी रहेगा कि
अमेरिका में मोपेड, स्कूटर, या रिक्शे-तांगे का रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कोई स्थान नहीं हैं। हां, कुछ पर्यटन स्थलों पर भारत में हाथी-ऊंट की सवारी की तरह यहां रिक्शा या बग्घी की सवारी आकर्षण का केंद्र हो सकती है, मगर रोज़मर्रा में ये वहीकल्स न के बराबर देखने में आते हैं।
बटन दबाते ही अंदर से आवाज़
विद्यालय के मुख्य द्वार पर पहुंच कर जैसे ही उसे खोलने की कोशिश की तो मालूम हुआ कि सारी इमारत इलेक्ट्रॉनिक ताले-कूंची से बंद है। दांये हाथ की तरफ़ एक बटन दबाते ही अंदर से आवाज़ आई।
इतनी सुरक्षा व्यवस्था
मेरे जवाब देने पर मुझे अपनी फ़ोटो आईडी भी दिखाने के लिए कहा गया। सब जांच पड़ताल के पश्चात दरवाज़ा अनलॉक हुआ तो मैं अंदर गई। घुसते ही दूसरा लॉक्ड दरवाज़ा! मैं हैरान! समझ नहीं पा रही थी कि इतनी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद अमेरिका में स्कूल शूटिंग्स की वारदातें कैसे हो जाती हैं। ख़ैर, अमेरिका में होने वाली शूटिंग्स और उसके कारणों पर मैं बाद में चर्चा करूँगी।
नक़्शे का सहारा
तो इन दो दरवाज़ों की सुरक्षा व्यवस्था को पार कर जब मैं विद्यालय के अंदर गई तो ऑफिस वालों ने स्कूल के नक़्शे के साथ मुझे मेरी कक्षा तक पहुँचने के दिशा निर्देश भी दे दिए। असल में स्कूल की इमारत इतनी फैली हुई थी कि इस नक़्शे का सहारा मुझे आने वाले कई सप्ताहों तक लेना पड़ा।
शिक्षक और विद्यार्थी पोजिशन
कक्षा में पहुंचने पर पहली घंटी 9:13am पर सुनाई दी। यह घंटी उन विद्यार्थियों के लिए एक चेतावनी थी जो अभी तक कक्षा में नहीं पहुँचे हैं, मगर स्कूल की बिल्डिंग में दोस्तों के साथ इधर-उधर घूम रहे हैं या कक्षा में पहुँच कर भी अपनी मेज़-कुर्सी से इतर इधर-उधर भटक रहे हैं। इस दो मिनट के समय में ज़्यादातर शिक्षक और विद्यार्थी अपनी अपनी पोजिशन ले लेते हैं।
एक मिनट का मौन
सुबह 9:15 की घंटी के साथ स्कूल प्रिंसिपल की आवाज़ टेलीकॉम पर सुनाई पड़ती है और सबको सुबह का नमस्कार और उस दिन होने वाली ख़ास ख़ास गतिविधियों की सूचना देने के बाद उन्होंने स्कूल के सभी सदस्यों से एक मिनट का मौन रखने की अपील की। पता चला कि अमेरिका के सरकारी स्कूलों में दिन की शुरुआत किसी क्रिश्चियन भजन, गीत या प्रार्थना से नहीं होती, बल्कि सिर्फ़ “मौन के कुछ क्षणों” या कहिए “Pause for the minute of silence” से होती है।
सकारात्मक ऊर्जा
मौन के इन क्षणों में आप जिसका ध्यान, चिंतन-मनन करना चाहें, उसका ध्यान कर सकते हैं। विद्यालय के सभी कर्मचारियों और विद्यार्थियों को इन क्षणों में शांति से बिना एक दूसरे पर ध्यान दिए अपने अपने इष्ट का सामूहिक रूप से ध्यान कर वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देते हैं। मौन के इन क्षणों में कोई भगवान को अपने ख़ूबसूरत जीवन के लिए धन्यवाद दे रहा होता है तो कोई अपने दिन की अच्छी शुरुआत के लिए प्रार्थना।
बहुत संभव बचा गया
संभव है, कुछ अपनी परेशानियों के लिए ईश्वर से झगड़ भी रहे हों और कुछ का ध्यान सिर्फ़ दूसरों की गतिविधियों पर ही हो, लेकिन जो भी हो अमेरिका के सरकारी स्कूलों का धर्म निरपेक्ष और सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव का यह तरीक़ा मुझे बहुत पसंद आया। जिसमें किसी भी एक धर्म, मज़हब या संप्रदाय को दूसरे धर्मों व सम्प्रदायों से न सिर्फ़ प्राथमिकता देने से बचा गया, बल्कि सरकारी विद्यालयों को धार्मिक आधार देने से भी बहुत संभव बचा गया।
कुर्सी पकड़ कर बैठे रहे
“मौन के क्षण” जैसे ख़त्म हुए तो “pledge of allegiance” (निष्ठा की शपथ/प्रतिज्ञा) की शुरुआत हुई। स्वयं प्रधानाध्यापक ने बाक़ायदा पूरा pledge of allegiance पढ़ा, जो सभी कक्षाओं में टेलीकॉम से सुनाई पड़ रहा था लेकिन ग़ज़ब कि बहुत से बच्चे इस पूरी समयावधि में बाक़ायदा अपनी कुर्सी पकड़ कर बैठे रहे।
ज़रूरत ही नहीं समझी
इस राष्ट्र के प्रति आदर सम्मान की क्रिया में उन्होंने भाग लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी, लेकिन देश के सम्मान में खड़ा होना या नहीं होना आपकी अपनी इच्छा और श्रद्धा पर निर्भर है, यहां भी किसी पर किसी तरह की कोई ज़बरदस्ती या नियम क़ानून नहीं। स्वतंत्र देशों में स्वतंत्रता के पैमाने कितने वृहद् और कितने विस्तृत हो सकते हैं यह जीवन में पहली बार महसूस हुआ। मैंने देखा कि pledge of allegiance के बाद सभी कक्षाओं में लगे big screen computers जिन्हें यहाँ promethium board भी कहते हैं पर मॉर्निंग एनाउंसमेंट सुनाया गया।तत्पश्चात् मेरी नज़र कक्षा में बैठे विद्यार्थियों पर गई सब बच्चे अलग अलग तरह की पोशाक में बैठे हुए थे
टरबन और हिजाब भी
यह बहुत ही अनोखी सी बात जिसे शायद दुनिया में बहुत ही कम लोग जानते हैं कि यहां प्राइमरी से लेकर हाई स्कूल तक, विद्यार्थियों की कोई यूनिफ़ॉर्म राज्य सरकार की ओर से निर्धारित नहीं की गई है। मतलब यह कि आपकी जो इच्छा हो आप वो पहन कर स्कूल आ सकते हैं। हाँ, अगर आपकी वेशभूषा बिलकुल ही सामाजिक दायरों के बाहर है तो आपको अलग से बुला कर सचेत किया जा सकता है मगर आपको किसी नियत तरह के परिधान में आने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसका परिणाम यह है कि मैं स्कूल में टरबन पहने सिक्ख बच्चों को भी देखती हूँ तो हिजाब या कभी कभी अबाया पहने मुस्लिम बच्चियों को भी देखा। फटी जींस में आ रही गोरी लड़कियों को देखती हूँ तो लम्बे, घुंघराले बालों में हेयर बैंड या टोपी लगाए लड़कों को भी।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आदर का भाव
पिछले साल अमरीकी राष्ट्रपति की ओर से अफ़ग़ानिस्तान से सेना हटा लेने के बाद आए अफ़ग़ान शर्णार्थियों की बढ़ी संख्या से विद्यालयों में दिखाई देने वाला ये कंट्रास्ट अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया, लेकिन वाह रे देश! यहाँ मन ही मन आप जो भी सोचते रहे लेकिन किसी के भी कपड़े लत्तों, रंग-रूप, नैन-नक़्श पर उल्टी-सीधी टिप्पणी करना आज की तारीख़ में समस्या को बुलावा दे सकता है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता और एक दूसरे के प्रति आदर भाव की ऐसी मिसाल इस स्तर पर देखने को मिलती हो। मेरी भगवान से प्रार्थना है कि इस देश में मिल रही असीमित स्वतंत्रता और संसाधनों का कभी भी किसी के द्वारा दुरुपयोग न हो और ये देश हमेशा दुनिया के सामने नई-नई मिसालें क़ायम करता रहे।