राजा विक्रमादित्य ने ही भूखी माता के सम्मान में इस मंदिर का निर्माण करवाया था। जनश्रुति है कि भूखी माता को प्रतिदिन एक युवक की बलि दी जाती थी। उस जवान लडक़े को उज्जैन का राजा घोषित किया जाता था और उसके बाद भूखी माता उसे खा जाती थी। राजा विक्रमादित्य ने प्रतिदिन बलि लेने वाली देवियों को अलग तरीके से प्रसन्न करने की योजना बनाई। राजा विक्रमादित्य ने इस समस्या के निदान के लिए देवी का वचन लेकर नदी पार उनके मंदिर की स्थापना की।
वचन में उन्होंने सभी देवी शक्तियों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। कई तरह के पकवान और मिष्ठान बनाकर रखवा दिए। एक तखत पर एक मेवा मिष्ठान्न का मानव पुतला बनाकर लेटा दिया और खुद तखत के नीचे छिप गए। रात्रि में सभी देवियां उनके उस भोजन से खुश और तृप्त हो गईं। तभी एक देवी को जिज्ञासा हुई कि तखत पर कौन.सी चीज है जिसे छिपाकर रखी है। तखत पर रखे उस पुतले को तोडक़र उन्होंने खा लिया। बाद में खुश होकर कहा कि किसने रखा यह इतना स्वादिष्ट भोजन। तब विक्रमादित्य तखत के नीचे से निकलकर सामने आ गए और उन्होंने कहा कि मैंने रखा है। देवी ने कहा कि. मांग लो वचन, क्या मांगना है। विक्रमादित्य ने कहा कि माता मैं यह वचन मांगता हूं कि कृपा करके आप नदी के उस पार ही विराजमान रहें, कभी नगर में न आएं और मनुष्यों की बलि लेना बंद कर दें। देवी ने राजा की चतुराई पर अचरज जाहिर करते हुए कहा कि ठीक है, तुम्हारे वचन का पालन होगा। तभी से देवी का नाम भूखी माता पड़ा और उनका मंदिर आज भी नदी के दूसरे छोर पर है।
अपने बेटे को बलि देने के लिए चुने जाने से दुखी एक मां का विलाप देख विक्रमादित्य ने उन्हें वचन दे दिया था कि उसके बेटे की जगह वह नगर का राजा बनेगा और भूखी माता का भोग बनने के लिए खुद की बलि दे देगा। राजा बनते ही विक्रमादित्य ने पूरे शहर को सुगंधित भोजन से सजाने का आदेश दिया। जगह जगह छप्पन भोग बनाए गए। भूखी माता की भूख विक्रमादित्य को अपना आहार बनाने से पहले ही खत्म हो गई और उन्होंने विक्रमादित्य को प्रजापालक चक्रवर्ती सम्राट होने का आशीर्वाद दिया।