अकबर काल में भगवान केदारनाथ की उत्पत्ति हुई थी। महाशिवरात्रि व श्रावण मास में यहां सुबह विशेष पूजा अर्चना का आयोजन होता है। हर वर्ष महाशिवरात्री पर भजन संध्या, अगले दिन शोभायात्रा निकाली जाती है। सावन मास में झिराना से श्रीश्याम सखा परिवार से जुड़े भक्तजन बीसलपुर बांध पहुंचकर कावड़ में जल लेकर यहां पहुंचते हैं, बीसलपुर के जल से अभिषेक करते हैं। तालाब किनारे स्थित होने से यह स्थान काफी रमणीक लगता है।
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यह है रोचक तथ्य
भगवान केदारनाथ की उत्पत्ति की कहानी काफी रोचक है। जिस स्थान पर आज मंदिर है, वहां कभी घनघोर जंगल हुआ करता था, जिसमें कैर के पेड़ ज्यादा थे। किवदन्ती के अनुसार मध्यकाल में इस गांव के पशुपालक गुर्जर के पास एक गाय थी। जिसे यहीं का रैगर जाति का चरवाहा जंगल में चराने जाता था। जो जंगल में गाय को चरने के लिए छोड़ देता और एक स्थान पर बैठ जाता। गाय चरने के दौरान एक कैर के पेड़ के नीचे जाकर रोजाना दोपहर खड़ी होती थी तथा गाय के चारों थनों से स्वत:दूध निकलने लगता है। रैगर जाति के ग्वाले ने एक दिन इस घटना को देख लिया और पशुपालक गुर्जर को इसके बारे में बताया। इस पर पशुपालक भी अगले दिन ग्वाले के साथ जंगल में गया। ग्वाले के बताए अनुसार दोपहर के समय उसने गाय पर निगरानी रखी तो गाय के चारों थनों से स्वत:दूध निकलने लगता है। ग्वाले की बात सत्य निकली। पशुपालक को कैर के पेड़ में करामात दिखी। इस पर उसने गांव के खाती को ले जाकर पेड़ को कटवाने का प्रयास किया तो आवाज आई कि ‘पेड़ को मत काटो’ परन्तु खाती ने पेड़ को काट दिया। इस दौरान अचानक उस स्थान से खून की धारा बाहर निकली। वहां खुदाई की तो उत्तराखंड स्थित केदारनाथ की हूबहू प्रतिमूर्ति के रूप में भगवान केदारेश्वर प्रकट होते हैं।
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भैंसे के आकार का शिवलिंग
खुदाई में भैंसे के आकार का शिवलिंग निकला, जिसका सिर (मस्तिष्क कटा हुआ था)। कहा जाता है कि यहां के गुर्जर व रैगर जाति के लोग अन्यत्र जाकर बस गए। मध्यकाल से यहां भगवान केदारश्वर शिवालय स्थापित है और जन जन की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। इस मंदिर में सामने सतीजी का स्थान है, तो एक ओर बालाजी का स्थान है। यहां संतों के निवास से हमेशा शिवमय माहौल बना रहता है।