यह वाकई ताज्जुब भरा है कि अधिकारी सचिन तक सूरत के विस्तार के क्रम में रास्ते में आ रहे पारडी कणदे और उभेर गांव को सूरत का हिस्सा बनाने से आखिर कैसे चूक गए। दोनों गांव चौर्यासी विधानसभा का हिस्सा हैं। यह चूक इसलिए हुई होगी कि संबंधित अधिकारी ने उधना दरवाजा से सचिन तक का सफर तय करने के बजाय दफ्तर में बैठकर ही नक्शे पर नए सूरत का खाका खींच दिया होगा। बड़े अधिकारी को नक्शे मेें छोटा सा गांव पारडी कणदे दिखा ही नहीं होगा। अगर इसी ड्राफ्ट पर शहर के विस्तार को अमली जामा पहना दिया जाता तो शहर के लोगों को सूरत के एक हिस्से से सूरत के दूसरे हिस्से तक पहुंचने के लिए एक बार शहर के दायरे से बाहर जरूर निकलना पड़ता। यह जिम्मेदारी यदि ऐसे अधिकारी को दी जाती जिसने सूरत का चप्पा चप्पा छान मारा हो तो शायद ऐसी चूक नहीं होती। आयुक्त ने भी इसका जिम्मा एक ऐसे अधिकारी को दिया था, जिसका शहर के भूगोल से उतना वास्ता नहीं है।
यह कोई पहला मौका नहीं है, जब अधिकारियों ने दफ्तर में बैठकर नक्शे पर फेरबदल किए हों। पूर्व में करीब एक दशक पहले अठवा जोन की तैयार हुई एक टीपी में अधिकारियों ने गवियर तालाब के बीच से ही टीपी रोड खींच दी थी। गवियर शहर का अकेला तालाब है, जो अपने मूल प्राकृतिक स्वरूप को बचाए हुए है। इसकी देखरेख का जिम्मा एक निजी संस्था कर रही है और पक्षियों के कलरव को सुनने के लिए रोजाना लोग यहां आते हैं।
दूसरी बात संबंधित गांवों और नगरपालिकाओं-पंचायतों को शहर की सीमा में शामिल करने से पहले उनकी सहमति ली जाती है। प्रक्रिया तो यह है कि इस आशय का पंचायत और पालिका से बाकायदा प्रस्ताव पारित होना चाहिए। शहर विस्तार का ड्राफ्ट तैयार करते समय इस प्रक्रिया का पालन भी नहीं किया गया। शहर की सीमा में शामिल हो रहे क्षेत्रों की छोटी सरकार की सहमति लिए बगैर ही इसका प्रस्ताव स्थाई समिति को भेज दिया गया। इस पूरे मामले में प्रक्रिया पर सवाल उठने के साथ ही यह भी दिखाता है कि बड़े स्तर पर अधिकारी ऐसी चूक कर रहे हैं तो अधीनस्थ अधिकारी-कर्मचारी किस तरह अपनी ड्यूटी को अंजाम दे रहे होंगे। सवाल तो यह भी उठता है कि लोगों के टैक्स का पैसा सही हाथों में है भी या नहीं।