किसान आंदोलन के काल में फैज़ाबाद से भेजी गई खुफिया रिपोर्ट में सुल्तानपुर के एक क्रांतिकारी किसान आंदोलनकारी के विषय में जो लिखा है, उसके अनुसार नरायनपुर के कायस्थ कबीर लाल के बेटे सूरज प्रसाद वैसे तो पढ़े-लिखे काबिल थे। नौकरी भी की, लेकिन मन ऐसे उचटा कि जवानी में ही नागा साधु हो गए। उनका नया नामकरण राम चन्द्र हो गया। वर्षों बाद जब घर लौटे तो मन में किसानों की दुर्दशा कचोटने लगी। देशभक्ति की भावना जाग गई। जन भावनाओं के दृष्टिगत कपड़ों के नाम पर एक लंगोट पहनने लगे और किसानों की मदद में तालुकेदारों का विरोध शुरू कर दिया। अवध किसान आंदोलन में एक और बाबा रामचंद्र के सक्रिय होने के कारण लोग इन्हें छोटा रामचंद्र कहने लगे।
इनके आंदोलन का केंद्र सुलतानपुर-फैजाबाद की सीमावर्ती रियासत खपरा डीह रही। रिपोर्ट तो यह भी खुलासा करती है कि राजा केसरी सिंह से मुकाबले के लिए छोटा रामचंदर ने लठैतों की फौज तैयार कर ली थी। उनके खाने-पीने व नशे का सामान खरीदने के लिए वे सब वसूली करते थे। इतना ही नहीं क्षेत्र में घूम-घूमकर किसानों को लगान न देने और अपना हक छीन लेने के लिए प्रेरित करते थे। बताया गया है कि उन्होंने किसान आंदोलन के दौरान ही गोसाईंगंज रेलवे स्टेशन फूंक दिया था। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान पुलिस ने उन्हें पकड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे यायावर की तरह इधर-उधर छिपते रहे। पकड़े भी गए गए तो उनके गांव के वकील शौकत अली ने बचा लिया। आज भी उनकी कारगुजारी पुलिस के खुफिया रिपोर्ट में तो है, लेकिन गौरवगाथा इतिहास के पन्ने में जगह नहीं पा सकी।
ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों में सुतं पुर के एक और ज़मीनी नेता नागेश्वर लाल पटवारी का ज़िक्र मिलता है। इनका कार्यक्षेत्र सुल्तानपुर का दोस्तपुर इलाक़ा था। किसान आंदोलन में भागीदारी के चलते 1921 में उन्हें सजा भी हुई। 1922 में जेल से रिहाई के बाद वह पुनः किसानों को संगठित करने में जुट गए। नागेश्वर लाल के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती। इस दिशा में शोद की आवश्यकता है। शहर से सटे पयागीपुर के रामलाल मिश्र की किसानों के आंदोलन में महती भूमिका रही है। पट्टी हो या रायबरेली हर जगह किसानों की आवाज मुखर करने में वे आगे रहे। नेहरू जी की आत्मकथा ’मेरी कहानी’ में इसका वर्णन है। उन्होंने बाबा रामलाल के की सराहना करते हुए भी लिखा है। ब्रिटिशकालीन खुफिया रिपोर्ट में बाबा राम लाल के 1928 में सुल्तानपुर ज़िले की किसान सभा के अध्यक्ष बनने की जानकारी दर्ज है। अब भी उनकी यादों को संजोने के लिए परिवारीजन आयोजन करते रहते हैं। लोगों के दिलों में तो बाबा रामलाल बसे हैं, लेकिन उनकी स्मृतियों को संरक्षित करने संबंधी सरकारी योजनाएं मूर्तरूप नहीं ले सकी।
वैसे तो पं. रामनरेश त्रिपाठी को आंदोलनकारियों में जोश भरने वाला साहित्यकार माना जाता था। अवध में किसानों की दुर्दशा उन्हें भी चुभती रही। 19वीं सदी के चौथे दशक में वे मुखर हुए और अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादती व किसानों की वेदना राजा सिंगरामऊ को लिख भेजा था। इतना ही नही जुल्म ज्यादती के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए उन्होंने किसानों के बीच इलाके में पर्चे बंटवाये आये और जलसे करके राजा को आगाह भी किया था। उनके ये प्रयास बताते हैं कि कवि व साहित्यकार का भी मन किसान व उसकी माटी से कितना द्रवित रहा। सुल्तानपुर ज़िले में किसान आंदोलन के इतिहास पर शोध की आवश्यकता है, ताकि इतिहास के इस विस्मृत काल खंड को संजोया जा सके।
(लेखक- सुलतानपुर जिले के वरिष्ठ पत्रकार, अधिवक्ता व स्वतंत्रता सेनानी के उत्तराधिकारी हैं)