क्या है इस गाँव की कहानी
लगभग 15 साल पहले जब सलवा जुडूम की शुरुआत हुई उसी समय जगरगुंडा को सबसे सुरक्षित मानकर यहां पर दूसरे असुरक्षित पांच-छह गांवाें के लोगों को बसाया गया। यहाँ लोगों के रहने के लिए झोपड़ी की व्यवस्था की गयी थी और आज भी यहाँ के ग्रामीण तमाम आवास योजनाओं के बाद भी झोपड़ी में रहने को मजबूर हैं।यहां सप्ताह में सिर्फ एक बार रविवार को बाजार लगता है।आय के नाम पर इन लोगों के पास खेती-बाड़ी कर अपना जीवन यापन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है।इन ग्रामीणों को हर महीने सरकार राशन उपलब्ध करवाती है।
हमेशा से ऐसा नहीं था जगरगुंडा
जगरगुंडा पहले बस्तर गौरव हुआ करता था।बीजापुर, दंतेवाड़ा और सुकमा से यह सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ था और यहां के लिए जगदलपुर और रायपुर से बसें चलती थी।इस गाँव में स्कूल,बिजली,यहां तक कि ग्रामीण बैंक भी थे।जगरगुंडा आदिवासियों का प्राथमिक व्यापारिक केंद्र था। 2006 में सलवा जुडूम के दौरान यहाँ के स्कूलों को जला दिया गया और ग्रामीणों पर नक्सली हमले होने लगे जिसके कारण ग्रामीणों ने जुडूम कैम्पों में चले गए।सन 2000 की शुरुआत में स्कूल जला दिए गए और गाँव में हमले शुरू हो गए।2006 में सलवा जुडूम के बाद अधिकांश निवासी जुडूम शिविरों में चले गए।सुरक्षा के लिए सरकार ने गांव की तारों से घेराबंदी करवा दी और दो गेट बना कर सुरक्षा बालों का पहरा बिठा दिया ।
एक दशक बाद पहली बार यहाँ पंहुचा कोई नेता
कवासी लखमा पिछले एक दशक में पहले ऐसे नेता हैं जो जरगुंडा गाँव पहुंचे हैं।उन्होंने ग्रामीणों से वादा किया है की अगर उन्होंने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट दिया तो वह जगरगुंडा गाँव को पहले की तरह बसाने का प्रयास करेंगे और सड़क अस्पताल और स्कूल जैसी मुलभुत सुविधाएं उन्हें उपलब्ध करवाएंगे।