यह नए जमाने का माध्यम है…
– बोधिसत्व, हिंदी कवि मैं इस बात से समहत नहीं हूं कि सोशल मीडिया का साहित्य पर नकारात्मक प्रभाव है। दरअसल अच्छे लेखन का इससे कोई संबंध नहीं है। मुख्य बात लेखन है। वो किस माध्यम से हो रहा है, यह बात मायने नहीं रखती है। लिखने वाला अपने लिखे के लिए जिम्मेदार है। असल बात लिखे गए कथन की गुणवत्ता की है, माध्यम की नहीं। और गुणवत्ता लेखक की चेतना पर निर्भर करती है। कोई लेखक यदि महत्ववपूर्ण बात कह रहा है, तो सोशल मीडिया उसे एक मंच प्रदान कर रहा है।सोशल मीडिया ने साहित्य को तुरंता बना दिया है
-जितेन्द्र श्रीवास्तव, युवा कवि एवं आलेचक सोशल मीडिया का जन्म कभी वैकल्पिक मीडिया के रूप में हुआ था लेकिन धीरे-धीरे उसका दबदबा इस कदर बढ़ गया कि मुख्य धारा का मीडिया भी उसके प्रभाव से बच नहीं पाया है। साहित्यिक पत्रिकाएं ब्लॉगों पर प्रकाशित साहित्य को ससमान प्रकाशित कर रही हैं। ब्लॉग पर चलने वाली चर्चाओं को न्यूज एंकर प्राइम टाइम का विषय-वस्तु बनाने लगे हैं। यह मीडिया के बारे में बदली हुई सोच का नतीजा है। लेकिन यहीं यह कहना भी जरूरी है कि सोशल मीडिया पर सब कुछ अनुकरणीय नहीं है। वहां प्रकाशित सामग्री का अधिकांश व्यक्तिगत है।इसने पाठक वर्ग तो बढ़ाया ही है…
-रजनी मोरवाल, कथाकार सोशल मीडिया पर साहित्य और लेखकों की उपस्थिति है भी यह प्रश्न विचारणीय है क्योंकि जो लेखक स्थापित माने जाते हैं वे यहां क्या खालिस साहित्य परोस रहें हैं? या यहां वे सिर्फ हाइलाइट लिखते हैं? और यदि वे सिर्फ हाइलाइट लिखते हैं तो वे लोगों में एक कोतुहल तो अवश्य ही उत्पन्न कर देते हैं। किंतु इसे साहित्य तो हरगिज नहीं माना जा सकता, हां स्थापित लेखकों की टिप्पणियों से ये तो जरूर होता है कि लोग उसे अपने-अपने हिसाब और समझ से विस्तार देते हैं, कम-से-कम एक जागरूकता तो विकसित होती ही है। इधर के कुछ वर्षों में सोशल मीडिया ने लेखकों की एक बड़ी फौज पैदा की है, लेकिन फिर भी मुख्यधारा में उनका कहीं कोई नाम नहीं है, न ही उनके लिखे से समाज में कहीं कोई हलचल या बदलाव दिखाई देता है।साहित्य को लोकप्रिय बना रहा है सोशल मीडिया
विमलेश त्रिपाठी, युवा कवि सोशल मिडिया पर कुछ स्थापित साहित्यकार भी मौजूद हैं, वे लागातार अपनी सक्रियता से सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं। इसके साथ ही कुछ नए लोग भी हैं जिन्होंने अभी-अभी लिखना शुरू किया है, वे लागातार अपनी रचनाएं यहां साझा करते हैं। कहना चाहिए कि वर्तमान समय में कई लोग हिंदी की पत्रिकाओं की मार्फत नहीं, बल्कि सोशल मीडिया के जरिए ही स्वयं को स्थापित करने में सफल हुए हैं। मैं खुद यह मानता हूं कि शोसल मीडिया पर होने के कारण मुझे जानने और पढऩे वालों की संख्या बढ़ी है। साहित्य में घटने वाली हर घटना पर यहां लोग बहस कर रहे हैं। यह जरूर है कि कुछ बहसें नाकारात्मक भी हो जाती हैं लेकिन कई बहसों से अच्छे निष्कर्ष भी आते हैं। मेरे ख्याल से सोशल मीडिया ने साहित्य को और लोकप्रिय बनाने का ही काम किया है। मैं साहित्य और सोशल मीडिया के संबंध को साकारात्मक रूप में देख रहा हूं।बड़ी रचना पढऩे की आदत छूट रही है
-हरे प्रकाश उपाध्याय, युवा कवि कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो सोशल मीडिया पर हिंदी के सारे ही लेखक कमोबेश सक्रिय हैं, पर सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता से साहित्य का कोई भला हो रहा है, ऐसा मुझे नहीं लगता। सोशल मीडिया के विकास से न तो कोई उल्लेखनीय कृति रच ली गई है और ना ही, तीन-चार सौ बिकने वाली किताबें तीन-चार हजार बिकने लगी हैं यानी न रचनाशीलता का कोई विकास हुआ है और ना ही पाठकीयता का। पर एक बात माननी पड़ेगी कि सोशल मीडिया ने हिंदी में लिखने वाले बहुत सारे नए लोगों को जन्म दिया है, उन्हें प्रेरित किया है। मगर उनमें से अधिकांश का लेखन किसी काम का नहीं है। यह भी यहां ध्यान में रखने योग्य बात है कि छोटी टिप्पणियां या कोई छोटी कविता तो सोशल मीडिया के माध्यम से पाठकों तक पहुंच सकती हैं पर वैसा ही स्कोप वहां किसी बड़ी रचना के लिए नहीं है। सोशल मीडिया पर हड़बड़ी बहुत है। इससे गंभीर साहित्य का नुकसान भी बहुत हो रहा है। लोगों की किताब या किसी बड़ी रचना को पढऩे की आदत छूट रही है। पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं पर रिस्पॉन्स कम मिलने लगा है। बड़ी से बड़ी रचना पर बधाई संदेश मैसेंजर/वाट्सएप में आने लगे हैं। उन पर कोई गहरा विश्लेषण या विस्तृत प्रतिक्रिया दुर्लभ होती जा रही है। हमने चीजों की गहराई में जाना छोड़ दिया है। सारा समय तो सोशल मीडिया पर सूचनाओं को प्राप्त करने या देने में ही चला जा रहा है। गंभीर साहित्यिक चर्चाएं जो जगह-जगह हुआ करती थीं, उनका भी बड़ा नुकसान हुआ है।