जयपुर। हरिशंकर परसाई का जन्म आज ही के दिन 22 अगस्त, 1922 को जमानी, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था। परसाई हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार थे। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती है, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढिवादी जीवन-मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान-सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा-शैली में खास किस्म का अपनापा है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है। परसाई ने 18 वर्ष की उम्र में जंगल विभाग में नौकरी की। खंडवा में 6 महीने अध्यापन कार्य किया। दो वर्ष (1941-43) जबलपुर में स्पेस ट्रेनिंग कॉलेज में शिक्षण की उपाधि ली। 1942 से वहीं माडल हाई स्कूल में अध्यापन किया। 1952 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी दी, 1953 से 1957 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। 1957 में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत कर दी। जबलपुर से वसुधा नाम की साहित्यिक मासिकी निकाली, नई दुनिया में सुनो भइ साधो, नयी कहानियों में पाँचवाँ कालम और उलझी-उलझी तथा कल्पना इत्यादि कहानियां, उपन्यास एवं निबन्ध लेखन के बावजूद मुख्यत: व्यंग्यकार के रूप में विख्यात हुए। परसाई मुख्यत: व्यंग -लेखक थे, उनका व्यंग केवल मनोरजन के लिए नहीं था। उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठको का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियो की ओर आकृष्ट किया है जो हमारे जीवन को दूभर बना रही है। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर करारा व्यंग किया है जो हिन्दी व्यंग -साहित्य में अनूठा है। परसाई जी हिन्दी साहित्य में व्यंग विधा को एक नई पहचान दी और उसे एक अलग रूप प्रदान किया, इसके लिए हिन्दी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा।