बरगवां में 250 हेक्टेयर से अधिक जमीन चिह्नित कर वहां औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने की योजना अभी तक केवल कागज तक सीमित है। औद्योगिक क्षेत्र तैयार हुआ होता तो उद्योगों का संचालन भी शुरू होता और युवाओं को रोजगार भी मिलता। इन्वेस्टर्स मीट में पूंजीपतियों के बीच साढ़े तीन सौ करोड़ के निवेश की सहमति बनने के एक वर्ष बाद भी सब कुछ हवा हवाई है।
यहां से देवसर विधानसभा क्षेत्र में जाने के लिए बस में बैठा। जैसे ही बस हाईवे पर पहुंची हिचकोले शुरू हो गए। पास बैठे यात्री त्रिभुवन गोंड़ का दर्द झलक उठा। कहने लगे यहां हाईवे व हवाई अड्डे की बात खूब होती है पर इनकी दुर्दशा आज तक नहीं सुधरी। कलेक्ट्रेट में काम से आए थे। सुबह साढ़े 5 बजे ही घर (लंघाडोल) से निकले हैं। 75 किमी दूर पहुंचने में पांच घंटे लगते हैं। देवसर के आखिरी गांव, चितरंगी व सरई जैसे इलाके से मुख्यालय आने-जाने में पूरा दिन लग जाता है। वहां बस मालिक देवरी निवासी देवेंद्र कुमार दुबे बैठे थे। स्वयं का परिचय देते हुए बोल पड़े। रूट पर जब सवारी ही नहीं रहेगी तो क्या कोई नुकसान में बस चलाएगा। शासन-प्रशासन कोई व्यवस्था भी तो नहीं देता है। देवसर व चितरंगी विधानसभा की बात छोडि़ए, ये इलाके तो मुख्यालय से दूर हैं। यहां तो सिंगरौली विधानसभा क्षेत्र में ही सड़क ऐसी है कि महीने भर में बस रिपेयरिंग मांगने लगती है।
विस्थापन का दर्द
बरगवां में स्टेशन रोड के मोड़ पर कुछ लोग चाय की चुस्की ले रहे थे। वहां विकास पर चर्चा छेड़ी तो ट्रेन का इंतजार कर रहे डगा निवासी रमेश आदिवासी की जुबां पर विस्थापन का दर्द दिखा। कहा, यहां की संपन्नता केवल उन लोगों तक सीमित है, जो पहले से संपन्न हैं। कोयला कंपनियों के विस्थापन से सामान्य व्यक्ति परेशान है। उसे न तो उचित मुआवजा मिलता है और न पुनर्वास की सुविधा। पास ही खड़े पंकज तिवारी बोले-पूरी प्रक्रिया चंद पूंजीपतियों के मुताबिक चल रही है। सामान्य व्यक्ति की कोई सुनने वाला नहीं। विस्थापन प्रक्रिया में लखपति लोग करोड़पति बन गए। सामान्य व्यक्ति बर्बादी की कगार पर है। उसका घर उजाडऩे के बाद उसे ठीक से छत तक नहीं नसीब हो रही है। खनुआ नया की पुनर्वास कॉलोनियां ही देख लीजिए।
इंजीनियरिंग कर घर बैठे हैं
बस का सफर कर चितरंगी पहुंचे। खाद बीज की दुकान में कुछ युवा आपस में बात कर रहे थे। पत्रिका का नाम सुनते ही वे समस्याएं गनाने लगे। आलोक ने विकास और रोजगार के दावों को धोखा बताया। कहा, इंजीनियरिंग कर घर बैठे हैं। यहां खदान और पावर प्लांट में स्थानीय को कोई रोजगार नहीं। विकास केवल कहने व सुनने में अच्छा लगता है। बगदरा इलाके में करौंंदिया, खम्हरिया, बकिया व गोपला जैसे कई गांव उदाहरण हैं। इन गांवों में लोग पेयजल को तरस रहे हैं। ग्रामीण नदी-नालों का पानी प्रयोग करने को मजबूर हैं, जबकि नल-जल योजना में करोड़ों रुपए फूंक दिए गए। अब वहां टैंकर से पानी पहुंचाने की बात की जा रही है। बिजली, सड़क व लोक परिवहन का भी हाल कुछ ऐसा ही है।
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