प्रशासन ने भले ही एसके अस्पताल की ट्रोमा यूनिट को शुरू करने के निर्देश दिए हो, लेकिन अभी हालात जस के तस हैं। ट्रोमा यूनिट के ओटी पर ताले लटके रहते हैं। कहने को ट्रोमा यूनिट में ट्रॉली मैन लगाए गए हैं लेकिन पिछले दो माह से अभी भी परिजनो को ही स्ट्रेचर लेकर वार्ड तक अपने मरीज को पहुंचाना पड़ रहा है। रही सही कसर जयपुर रैफर के दौरान ट्रोमा यूनिट से नर्सिंग को भेज देने से हो जाती है। ऐसे में मरीजों की संख्या बढऩे के साथ ही ट्रोमा की व्यवस्था पटरी से ही उतर जाती है। कई बार तो ऐसी स्थिति हो जाती है। जहां मिनटों में हो सकने वाले उपचार के लिए कई घंटे तक लग जाते हैं। ऐसे मरीजो के साथ आने वाले परिजनों को भी काफी परेशानी उठानी पड़ती है। कई बार डॉक्टर समय पर नहीं मिलते है। तो कई लाइन इतनी लम्बी होती है कि सुबह से शाम हो जाए।
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अस्पताल में आपातकाल के समय मरीज ट्रोमा सेंटर में ही इलाज के लिए आते हैं। इलाज के दौरान सर्जन या फीजिशियन को ऑनकॉल बुलाने से डायरी भरनी होती है। डायरी भरने के बाद एम्बुलेंस चालक संबंधित चिकित्सक को फोन करता और उसके घर जाकर लेकर आता है।
इसलिए करते हैं रैफर
नर्सिंग स्टॉफ फोन पर ही संबंधित चिकित्सक से सलाह लेता है। यही कारण है कि रात्रि में ट्रोमा सेंटर में आने वाले करीब 25 फीसदी मरीजों को जयपुर या अन्य जगह रेफर कर दिया जाता है। रात्रि के समय आने वाले मरीजों में अधिकांश दुर्घटना या प्वॉइजन के मामले होते हैं।
नर्सिंग स्टॉफ फोन पर ही संबंधित चिकित्सक से सलाह लेता है। यही कारण है कि रात्रि में ट्रोमा सेंटर में आने वाले करीब 25 फीसदी मरीजों को जयपुर या अन्य जगह रेफर कर दिया जाता है। रात्रि के समय आने वाले मरीजों में अधिकांश दुर्घटना या प्वॉइजन के मामले होते हैं।