सीकर किसान आंदोलन 1979-80
शेखावाटी किसान आंदोलन (सीकर)
वर्ष 1925 में शेखावाटी किसान आंदोलन हुआ। इस आंदोलन का ज्यादा असर गांव कुंदन, कटराथल, खुड़ी व पलथाना में था। कुंदन, भठोठड़ा व खुड़ी पुलिस गोलीकांड में कई किसानों की मौत हुई थी। आंदोलन आजादी से एक साल पहले हीरालाल शास्त्री के जरिए समाप्त हुआ।
दूधवा-खारा किसान आंदोलन (चूरू)
दूधवा खारा गांव चूरू जिले में है। यहां पर वर्ष 1946-47 किसान आंदोलन हुआ। उस वक्त चूरू बीकानेर रियासत का हिस्सा हुआ करता था और किसानों पर जमीदारों के अत्यधिक अत्याचार होते थे। हनुमानसिंह आर्य, रघुवरदयाल गोयल, वैद्य मघाराम आदि के नेतृत्व में यह आंदोलन किया गया था।
लाग बाग, बेगार प्रथा की चलते ही वर्ष 1921 में बेंगु किसान आंदोलन हुआ था। किसान नेता रामानारायण चौधरी के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हुआ। विजय सिंह पथिक भी इस आंदोलन से जुड़े थे। इसमें वर्ष 1923 में गांव गोविन्दुपरा में किसानों के सम्मेलन में सेना की गोलियों से रुपाजी व कृपाजी नामक दो किसानों की मौत हो गई थी। आखिर किसानों की जीत हुई हुई बेगार प्रथा समाप्त होने के साथ आंदोलन भी समाप्त हो गया था।
बिजौलिया में यह आंदोलन वर्ष 1897 से 1941 तक चला। आंदोलन की शुरुआत साधु सीतारामदास, नानकजी पटेल व ठाकरी पटेल के नेतृत्व में हुई थी। इसकी वजह लागबांग, बेगार, लाटा, कुंता व चंवरी कर, तलवार बंधाई कर आदि था। इस आंदोलन का जनक विजय सिंह पथिक को कहा जाता है। इनके अलावा माणिक्यलाल वर्मा, हरिभाऊ उपाध्याय तथा जमनालाल बजाज ने भी इस आंदोलन की बागड़ोर संभाली। माणिक्यलाल वर्मा व मेवाड़ रियासत के प्रधानमंत्री टी.राघवाचार्य के बीच समझौता हुआ और किसानों की अधिकांश मांग मान ली गई।
लगान के विरोध में मोहम्मद अली के नेतृत्व में यह आंदोलन वर्ष 1931 में अलवर व भरतपुर में हुआ। यह क्षेत्र मेव बाहुल्य होने के कारण इसे मेवात कहते हैं।
सुअरपालन विरोधी आंदोलन (अलवर)
अलवर में दो किसान आंदोलन हुए। वर्ष 1921 में हुआ सुअरपालन विरोधी आंदोलन पहला था। इसकी वजह यह थी कि बाड़ों में पाले जाने वाले सुअर द्वारा फसल को नष्ट करना था। उस वक्त सरकार की तरफ से सुअरों को मारने पर पाबंदी थी। किसानों ने विरोध में आंदोलन किया था। आखिर में सरकार ने सुअरों को मारने की इजाजत दी, तब आंदोलन समाप्त हुआ।
नीमूचणा किसान आंदोलन (अलवर)
अलवर के नीमूचणा में वर्ष 1923 से दूसरा किसान आंदोलन हुआ। अलवर के तत्कालीन महाराजा जयसिंह द्वारा लगान की दर बढ़ाना इस आंदोलन की वजह बना। गांवी नीमूचणा में किसानों की सभा पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलाई थी, जिसमें सैकड़ों किसानों की मौत हुई थी।
अत्यधिक लगान, लाग बाग और बेगार प्रथा के विरोध में वर्ष 1926 में हुआ बूंदी किसान आंदोलन बरड़ किसान आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। डाबी में नैनूराम शर्मा के नेतृत्व में हो रहे किसान सम्मेलन पर भी पुलिस की गोलियां चली, जिसमें नानक भील की मौत हो गई। यह 1943 में समाप्त हुआ।