स्थानीय परंपरा के अनुसार लोग माता के दर्शन के साथ-साथ दो महान योद्धाओं आल्हा और ऊदल, जिन्होंने पृथ्वी राज चौहान के साथ भी युद्ध किया था का भी दर्शन अवश्य करते हैं। यदि कोई व्यक्ति रात के समय यहां रूकने की चेष्टा करता है तो वह अगली सुबह नहीं देख पाता। मौत के आगोश को प्राप्त हो जाता है। इन दोनों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में 12 सालों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था।
आल्हा माता को शारदा माई कह कर पुकारा करता था। तभी से ये मंदिर भी माता शारदा माई के नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और उदल ही करते हैं। मंदिर के पीछे पहाड़ों के नीचे एक तालाब है, जिसे आल्हा तालाब कहा जाता है। यही नहीं, तालाब से 2 किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा मिलता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा और उदल कुश्ती लड़ा करते थे।
मैहर माता का मंदिर सिर्फ रात्रि 2 से 5 बजे के बीच बंद किया जाता है, इसके पीछे एक बड़ा रहस्य छुपा है। ऐसी मान्यता है कि आल्हा और ऊदल आज तक इतने वर्षों के बाद भी माता के पास आते हैं। रात्रि 2 से 5 बजे के बीच आल्हा और ऊदल रोज मंदिर में आकर माता रानी का सबसे पहले दर्शन करते हैं और माता रानी का पूरा श्रृंगार करते हैं। यह बात स्वयं मंदिर के पुजारी देवी प्रसाद ने स्वीकार की है। देवी प्रसाद ने बताया था कि एक बार हमको एहसास हो चुका है। तब से मैं भी मां की भक्ति में लीन रहता हूं।