कुण्डेश्वर मंदिर के पुजारी जमुना प्रसाद तिवारी बताते है कि संवत 1204 में यहां पर धंतीबाई नाम की एक महिला पहाड़ी पर रहती थी। पहाड़ी पर बनी ओखली में एक दिन वह धान कूट रही थी। उसी समय ओखली से रक्त निकलना शुरू हुआ तो वह घबरा गई। ओखली को अपनी पीतल की परात से ढक कर वह नीचे आई और लोगों को यह घटना बताई। लोगों ने तत्काल ही इसकी सूचना तत्कालीन महाराजा राजा मदन वर्मन को दी। राजा ने अपने सिपाहियों के साथ आकर इस स्थल का निरीक्षण किया तो यहां पर शिवलिंग दिखाई दिया। इसके बाद राजा वर्मन ने यहां पर पूरे दरवार की स्थापना कराई। यहां पर विराजे नंदी पर आज भी संवत 1204 अंकित है। जो उस समय की इस घटना का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
मंदिर में विराजे भगवान शिव को लेकर किवदंती है कि आज भी राजकुमारी ऊषा यहां पर भगवान शिव को जल अर्पित करने के लिए आती है। मंदिर के पुजारी जमुना प्रसाद तिवारी सहित अनेक श्रद्धालु बताते है कि आज भी पता नही चलता है कि आखिर सुबह सबसे पहले कौन आकर शिवलिंग पर जल चढ़ा जाता है। कुछ लोगों ने इसका पता लगाने का भी प्रयास किया लेकिन सफलता नही मिली।
लोग बताते है कि कुण्डेश्वर मंदिर में प्रत्येक वर्ष बढऩे वाले शिवलिंग की हकीकत पता करने सन 1937 में टीकमगढ़ रियासत के तत्कालीन महाराज वीर सिंह जू देव द्वितीय ने यहां पर खुदाई प्रारंभ कराई थी। उस समय खुदाई में हर तीन फीट पर एक जलहरी मिलती थी। ऐसी सात जलहरी महाराज को मिली। लेकिन शिवलिंग की पूरी गहराई तक नही पहुंच सके। इसके बाद भगवान ने उन्हें स्वप्र दिया और यह खुदाई बंद कराई गई।
यह प्राचीन एवं सिद्ध स्थल है। कहा जाता है कि यह शिवलिंग प्रतिवर्ष चावल के दाने के आकार का बढ़ता है। इस मंदिर को लेकर आस्था ऐसी है कि इस स्थान को तेरहवें ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है। भक्त इसे सभी ज्योतिर्लिंगों से अलग भी मानते हैं क्योंकि सभी शिवलिंग हर किसी की प्रतिष्ठा की गई है, जबकि कुण्डेश्वर महादेव स्वयं भू है। सदियों से कुण्डेश्वर महादेव के प्रति भक्तों की आस्था ऐसी ही बनी हुई है, क्योंकि यहां पर उन्हें नजर आता है उस दिव्य शक्ति का अलौकिक रूप।