आमतौर पर महुए के फूल गिरने का सीजन एक महीने का रहता है। होली बीतते ही फूल चुनने की तैयारी शुरू हो जाती है, जिन परिवारों के बच्चे बाहर होते हैं उन्हें भी बुला लेते हैं। इस साल महुआ के फूल तो खूब आए और गिरे भी पर सीजन जल्दी चला गया। शिवचरण साहू बताते हैं कि महुआ का संबंध रजाई भर ठंड से है। शीत ऋुतु जब उतार पर आती है तो रात 12 बजे से सुबह 5 बजे तक फूल झड़ते हैं। इस बार जल्दी गर्मी शुरू हो गई, इसलिए फूल गिरने का सीजन 15 दिन में खत्म हो गया। फिर भी इस काम में लगे लोगों को अच्छी फसल मिली है।
सरकार ने वनोपज की खरीद में महुआ को भी शामिल किया है। इसका समर्थन मूल्य 35 रुपए किलो तय किया गया है। लेकिन अनाज की तरह इसकी खरीद नहीं होने के कारण आदिवासी परिवार बिचौलियों के हाथ औने-पौने दाम पर इसे बेचने को मजबूर हैं। अभिलाष तिवारी बताते हैं कि सीधी और सिंगरौली जिले में बड़े पैमाने पर महुआ का संग्रहण होता है। लेकिन मंडी नहीं होने के कारण गांव-गांव घूमने वाले बिचौलियों को फूल बेचने को लोग मजबूर हैं। अभिलाष ने बताया कि कुसमी आदिवासी ब्लॉक से लगे छत्तीसगढ़ के जनकपुर में बड़ी महुआ मंडी है। बिचौलिए यहां से खरीदी कर वहां पहुंचा देते हैं। सरकार ने स्वसहायता समूहों को खरीदी का काम सौंपा है, लेकिन अनिश्चितता बहुत होने के कारण आम आदिवासी इसे नहीं बेच पाते हैं।
आदिवासियों की नकदी फसल महुआ का प्रदेश में 300 करोड़ से अधिक का कारोबार है। मध्यप्रदेश वन विकास निगम के आंकड़ों के मुताबिक महुआ के फूल और फल का उत्पादन 54 हजार टन से अधिक का है। लेकिन उपयुक्त बाजार नहीं मिल पाने के कारण आदिवासियों को उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है। सीधी लुरघुटी के वीरेंद्र पाण्डेय बताते हैं कि आदिवासियों के सामने सबसे बड़ी समस्या भंडारण की है। यही वजह है कि फूल के सूखते ही वे बेच देने को मजबूर होते हैं। अगर सरकार भंडारण की व्यवस्था बनाए तो और अधिक दाम मिल सकते हैं।
महुआ स्वाद और पौष्टिकता में बेजोड़ है, लेकिन दुर्भाग्य से इसे शराब में ही समेट दिया गया। जबकि इसके कई सह उत्पाद बनाए जा सकते हैं। कभी महुआ पकवान बनाने के काम में आता था लेकिन अब रसोई से बाहर हो चुके हैं। हालांकि सरकार ने हेरिटेज ड्रिंक के रूप में महुआ के सह उत्पाद को प्रमोट करने के लिए योजना बनाई है।