वातावरण की इस चुप्पी को तोड़ते हुए श्री अरविन्द बोले- देख पढ़ना बुरा नहीं है। पर यह पढ़ना दो तरह का होता है- एक बौद्धिक विकास के लिए, दूसरा मन- प्राण को स्वस्थ करने के लिए। इस दूसरे को स्वाध्याय कहते हैं और पहले को अध्ययन। तुम इतना अध्ययन करते हो सो ठीक है, पर स्वाध्याय भी किया करो। इसके लिए अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुरूप किसी मन्त्र या विचार का चयन करो। और फिर उसके अनुरूप स्वयं को ढालने की साधना करो। नलिनीकान्त लिखते हैं, यह बात उस समय की है, जब श्री अरविन्द सावित्री पूरा कर रहे थे। मैंने इसी को अपने स्वाध्याय की चिकित्सा की औषधि बना लिया।
फिर मेरा नित्य का क्रम बन गया। सावित्री के एक पद को नींद से जगते ही प्रातःकाल पढ़ना और सोते समय तक प्रतिपल- प्रतिक्षण उस पर मनन करना। उसी के अनुसार साधना की दिशा- धारा तय करना। इसके बाद इस तय क्रम के अनुसार जीवन शैली- साधना शैली विकसित कर लेना। उनका यह स्वाध्याय क्रम इतना प्रगाढ़ हुआ कि बाद के दिनों में जब श्री अरविन्द से किसी ने पूछा- कि आपके और माताजी के बाद यहां साधना की दृष्टि से कौन है? तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- नलिनी।
श्री अरंविद इतना कहकर थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, ‘नलिनी इज़ इम्बॉडीमेण्ट ऑफ प्यूरिटी’ यानि कि नलिनी पवित्रता की मूर्ति है। नलिनी ने वह सब कुछ पा लिया है जो मैंने या माता जी ने पाया है। ऐसी उपलब्धियां हुई थीं स्वाध्याय चिकित्सा से नलिनीकान्त को। हालांकि वह कहा करते थे कि स्वस्थ जीवन के लिए शुरूआत अपनी स्थिति के अनुसार मन के स्थान पर तन से भी की जा सकती है। इसके लिए हठयोग की विधियां श्रेष्ठ हैं।
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