1. सिद्ध कुंजिका स्त्रोत का पाठ विशेष रूप से संधि काल (यानी वह समय जब एक तिथि समाप्त हो रही हो और दूसरी तिथि आने वाली हो) में किया जाता है। विशेष रूप से जब अष्टमी तिथि और नवमी तिथि की संधि हो तो अष्टमी तिथि के समाप्त होने से 24 मिनट पहले और नवमी तिथि के शुरू होने के 24 मिनट बाद तक का जो कुल 48 मिनट का समय होता है उस दौरान ही माता ने देवी चामुंडा का रूप धारण किया था और चंड-मुंड नाम के राक्षसों का वध किया था। इस दौरान ही कुंजिका स्तोत्र का पाठ करना सर्वोत्तम फलदायी माना जाता है। यह समय नवरात्रि का सबसे शुभ समय भी माना गया है क्योंकि इसी समय के समाप्त होने के बाद देवी वरदान देने को तत्पर होती हैं।
2. सिद्ध कुंजिका स्त्रोत का पाठ करते समय इसका ध्यान रखना चाहिए कि चाहे आप कितने भी थक जाएं लेकिन जब पाठ कर रहे हैं तो पाठ बंद नहीं करना चाहिए।
3. वैसे सिद्ध कुंजिका स्त्रोत का पाठ दिन में किसी भी समय किया जा सकता है, लेकिन विशेष रूप से ब्रह्म मुहूर्त के दौरान इसका पाठ करना सबसे अधिक प्रभावशाली माना जाता है। (ब्रह्म मुहूर्त सूर्य उदय होने से एक घंटा 36 मिनट पहले प्रारंभ होता है और सूर्य देव के समय से 48 मिनट पहले ही समाप्त हो जाता है। इस प्रकार यह कुल 48 मिनट का समय होता है।)
4. हर स्थान के लिए सूर्योदय के समय में अंतर होता है। इसलिए यदि आपको अपने स्थान का समय नहीं मालूम तो साधारणतः प्रातः 4:25 बजे से लेकर 5:13 बजे के बीच सिद्ध कुंजिका स्त्रोत का पाठ करना चाहिए। इसको सुनना भी पुण्यफलदायक होता है।
5. वैसे तो आप अपनी सुविधानुसार किसी भी प्रकार से सिद्ध कुंजिका स्त्रोत का पाठ कर सकते हैं लेकिन यदि आप लाल आसन पर बैठकर और लाल रंग के कपड़े पहन कर यह स्रोत पढ़ते हैं तो आपको इसका और भी अधिक फल प्राप्त होता है क्योंकि लाल रंग देवी दुर्गा को अत्यंत प्रिय है।
6. यदि किसी विशेष कार्य के लिए आप कुंजिका स्त्रोत का पाठ कर रहे हैं तो आप को शुक्रवार के दिन से प्रारंभ करना चाहिए और पाठ संकल्प लेकर ही शुरू करना चाहिए। जितने दिन के लिए आपने पाठ करने का संकल्प लिया था, उतने दिन पाठ करने के बाद माता को भोग लगाकर छोटी कन्याओं को भोजन कराएं और उनके चरण छूकर आशीर्वाद लें। इससे आपकी मन वांछित फल मिलेंगे।
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि, कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत॥1॥
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्॥2॥ कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥3॥ गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्॥4॥ ॥अथ मन्त्रः॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥ ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा॥
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि॥2॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि॥5॥
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥8॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे॥
इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुञ्जिकाया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।
॥ॐ तत्सत्॥