भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि जो फल कार्तिक पूर्णिमा पर त्रिपुष्कर में स्नान करने या गंगा तट पर पितरों का पिंडदान करने से प्राप्त होता है, वही फल अपरा एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है। मकर के सूर्य में प्रयागराज के स्नान से, शिवरात्रि का व्रत करने से, सिंह राशि के बृहस्पति में गोमती नदी के स्नान से, कुंभ में केदारनाथ के दर्शन या बद्रीनाथ के दर्शन, सूर्य ग्रहण में कुरुक्षेत्र के स्नान से, स्वर्णदान करने से या अर्ध प्रसूता गौदान से जो फल मिलता है, वही फल अपरा एकादशी व्रत से मिलता है।
अपरा एकादशी व्रत कथा (Apara Ekadashi Vrat Ki Katha)
भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को एक प्रचलित कथा भी सुनाई, जिसे व्रत के दिन साधक को सुनना चाहिए। इसके अनुसार प्राचीन काल में महीध्वज नाम का एक धर्मात्मा राजा राज्य करता था. उसका छोटा भाई वज्रध्वज क्रूर, अधर्मी और अन्यायी था। वह बड़े भाई से द्वेष रखता था। एक दिन उसने बड़े भाई की हत्या कर दी और उसकी देह एक जंगल में पीपल के पेड़ के नीचे गाड़ दिया। अकाल मृत्यु के कारण राजा प्रेत बन गया और उसी पीपल के पेड़ पर रहकर उत्पात करने लगा।
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धौम्य ऋषि ने किया राजा का कल्याण
एक दिन धौम्य ऋषि उधर से गुजरे, उन्होंने पेड़ पर प्रेत देखा और तप के बल से उसकी कहानी जान ली और उसके उत्पात का कारण समझ लिया। इसके बाद ऋषि ने उसे पीपल के पेड़ से उतारा और परलोक विद्या का उपदेश दिया। इसके अलावा ऋषि ने स्वयं ही राजा की प्रेत योनि से मुक्ति के लिए अपरा (अचला) एकादशी का व्रत किया और उसे अगति से छुड़ाने के लिए व्रत के पुण्य फल को प्रेत बने राजा को अर्पित कर दिया।
इस पुण्य के प्रभाव से राजा प्रेत योनि से मुक्त हो गया और ऋषि को धन्यवाद देता हुआ दिव्य देह धारण कर पुष्पक विमान से स्वर्ग चला गया। भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि हे राजन! यह कथा मैंने लोकहित के लिए कही है, इसे पढ़ने और सुनने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है।