आचार्य ने कहा कि अविवेक और अज्ञान ही उत्तेजना को बढावा देती है। ज्ञान का चिंतन किया जाए, तो उत्तेजना का समाधान ही नहीं मिलता, अपितु हर तरह की समस्या सुलझ जाती हैं। उत्तेजित होने वाले व्यक्ति को अंत में पश्चाताप ही करना पडता है। उत्तेजना की आंधी में प्रेम, द्वेष में विनय, अविनय में और आत्मीयता, अनात्मीयता में बदल जाती हैं। उत्तेजना अपनेआप में हिंसा है। कोई बाहर से मारे और सताए नहीं, लेकिन उत्तेजना में जिए, तो वह भाव हिंसा से गुजरता है। भाव हिंसा व्यक्ति को कायर, डरपोक, कमजोर और दुर्बल बनाती है। उत्तेजना में जीने वाले व्यक्ति की इमिन्युटी पावर कमजोर हो जाता है। चेहरे की सौम्यता, वाणी की मधुरता और विचारों की पवित्रता नहीं पाई जाती। व्यक्ति जब अपने आप में रहना सीख लेता है, तो उत्तेजना को जीत लेता है।
आचार्य ने बताया कि उत्तेजना हमारा स्वभाव नहीं है। ये तो विकृति है, जो अन्य विकृतियों को अपनी और आकृर्षित करती है। उत्तेजना में जो जितना रहता है, उसका गला उतना सूखता है। पेट में अपच रहती है और भाव तंत्र खत्म हो जाता है। वाणी स्खलित और जीवन चर्या अनियंत्रित हो जाती है। उत्तेजना में सब्र तथा संयम के तटबंध टूट जाते है। इसी कारण व्यक्ति अधीर बनकर कई अनर्थों को बुला लेता है। मन की उत्तेजना भाषा में उतरने पर विद्वेष पैदा करती है और वातावरण को विषेला बना देती है। भाषा की उत्तेजना से ही साम्प्रदायिक सौहार्द का भाव समाप्त होता है। दंगे-फसादों के पीछे भी भाषा की उत्तेजना की अधिक काम करती है। इससे परिवार टूटते है। समाजों में विक्षुब्धता पैदा होती है। वर्तमान में व्यक्ति अशांत है, परिवार विभाजित है, समाज विक्षुब्ध है, राष्ट्र्र आतंकित है और विश्व विनाश के कगार पर है। मनुष्य से लेकर विश्व तक को बचाना है, तो उत्तेजना पर नियंत्रण करना जरूरी है।