रायपुर

CG Festival Blog: उत्साह और उमंग का पर्व है दीपावली, दशहरा से देवउठनी तक निभाते हैं कई परंपरा

CG Festival Blog: दीपावली उत्साह और उमंग का पर्व है। देश में भले ही यह एक सप्ताह का पर्व है लेकिन छत्तीसगढ़ में इसकी शुरुआत दशहरा पर्व से हो जाती है। पाठक के द्वारा भेजे गए ब्लाग आप जरूर पढ़ें..

रायपुरOct 19, 2024 / 12:46 pm

चंदू निर्मलकर

CG Festival Blog: छत्तीसगढ़ में दीपावली को सुरहुत्ती कहते हैं। सुर यानी सूर्य, हुत्ती यानी प्रकाश। चूँकि धान की बालियाँ पकने को हैं अत: उन्हें सूर्य के तेज ताप की ज़रूरत है ताकि धान जल्दी पके। इसके साथ ही खूब सारे दीप प्रज्वलित कर फसलों को कीट पतंगों से भी बचाया जा सके।
देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में नवरात्रि की शुरूआत के साथ ही दीपोत्सव की तैयारी शुरु हो जाती है। जंवारा बोकर, नौ दिन तक जोत जलाकर, देवी की सेवा के बाद दशहरे का दिन आता है। विजय का पर्व दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत के रुप में पूरे देश में मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में भी गाँव गाँव में रावण का पुतला बनाकर रामलीला का आयोजन किया जाता है और दशहरे के दिन राम के हाथों रावण को जला कर उसका नाश किया जाता है। छत्तीसगढ़ के कई गाँवों में तो रावण की सीमेंट की पक्की मूर्तियाँ बनी हुईं हैं।
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CG Festival Blog: दियों का दर्द

दशहरा का उत्सव समाप्त होते ही दीवाली की तैयारी शुरू हो जाती है। इस समय घरों की छबाई, पुताई से लेकर सफाई तक ढेरों काम होते हैं। अपने घर को साफ- सुथरा बनाने के लिए सबको दीपावली का इंतजार होता है। रावण को मारकर और सीता माता को लेकर भगवान राम और लक्ष्मण के अयोध्या लौटने की खुशी में पूरा गाँव आनंद मनाता है। गाँवों के घरों में दशहरे के बाद से ही आकाश में दीया जगमगाने लगते हैं। जिसे देखकर ही समझ में आ जाता है कि दीप पर्व की शुरूआत हो गई है। घरों में ऊपर बाँस पर टँगें इस आकाशदीप को छत्तीसगढ़ी में अगासदिया कहते हैं। यह अगासदिया देव-उठनी अर्थात तुलसी पूजा तक आसमान में जगमगाता रहता है।

CG Festival Blog: धनतेरस और नरक चौदस

छत्तीसगढ़ में घर- आँगन को दीपों से जगमग करने की शुरुआत धनतेरस के दिन से ही शुरू हो जाती है। इस दिन परिवर में सोना चाँदी या बर्तन खरीदने की परंपरा है। लोग अपनी हैसियत के अनुसार कुछ न कुछ नया खरीदकर लाते हैं। अब तो लोग नई गाड़ी या नया घर लेने के लिए धनतेरस के दिन का इंतजार करने लगे हैं। धनतेरस के दिन साँझ ढलने के बाद घर के प्रमुख द्वार के बाहर चावल के आटे से चौक पूर कर, जिसे हथेली की चार उँगलियों से उकेरा जाता है, के ऊपर पंक्तिबद्ध तेरह दिए रखे जाते हैं। ये दिए भी चावल के आटे से ही बनाए जाते हैं। द्वार पर इनकी गुलाल, बंदन और फूलों से पूजा करके होम- धूप देकर, घर- परिवार में सुख- समृद्धि की कामना की जाती है। इसी प्रकार दूसरे दिन यानी नरक चौदस के दिन भी द्वार पर इसी प्रकार से पूजा की जाती है , हाँ इस दिन चावल आटे का नहीं बल्कि काली मिट्टी से चौदह दिए बनाकर जलाए जाते हैं।

सुरहुत्ती यानी लक्ष्मी पूजा

इसके बाद सुरहुत्ती अर्थात् लक्ष्मीपूजन के दिन शाम से ही घरों में चहल-पहल प्रारंभ हो जाती है। घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएँ कामगारों को सुबह- सुबह आदेश देती हैं कि वे कुम्हार के घर से जो नए दीये खरीदकर लाए गए हैं ,उन्हें पानी में डूबा दें। कुछ घंटे बाद उन्हें पानी से निकालकर सुखाने कहती हैं, फिर रूई लेकर दिया जलाने के लिए ढेर सारी बाती (बत्ती) बनवाती हैं। जैसे ही सूर्य डूबता है और अँधेरा छाने लगता है, दियों में तेल डलवा कर और उन्हें जलाकर पूरे घर में चारों तरफ रखवा देती हैं।
इस प्रकार शाम ढलते ही सबके घर आँगन के साथ गाँव भर के चौखट पर जगमग-जगमग माटी के दिये जलने लगते हैं। तुलसी चौरा में, जो प्राय: गाँव के प्रत्येक घर के आँगन में मिल जाता है, दीपों की ग्वालिन (कुम्हारों द्वारा बनाई गई दीयों से सजी महिला) जलाई जाती है। आज के दिन घर का एक भी कोना अँधेरा नहीं रखा जाता।
चाहे वह गाय कोठा हो, धान कोठा, ब्यारा (जहाँ धान काट लाने के बाद रखे जाते हैं) आदि घर के हर कोने में जलते हुए दीप रखे जाते हैं। छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान क्षेत्र है, इसलिए राजा राम के स्वागत में दीप जलाने की परम्परा के साथ ही घर में आई फसल जो सबके लिए लक्ष्मी का रूप होती है, के स्वागत में घर को प्रकाशमान किया जाता है। दरअसल गाँव के किसानों की यही असली दीवाली होती है।
गाँवों में सुरहुती के दिन दीप जलाने के साथ-साथ लक्ष्मी पूजा की परम्परा अभिजात्य परिवारों की देन कही जा सकती है क्योंकि वृद्ध ग्रामीण जन कहते हैं कि पहले निम्न वर्गीय परिवारों में लक्ष्मी की पूजा नहीं की जाती थी ; परंतु अब छोटे बड़े सभी घरों में लक्ष्मी का चित्र रखकर उसकी आरती उतारी जाती है। पहले गाँव के लोग अपने घर पशु- धन, अनाज आदि को ही लक्ष्मी मानते थे और उसी की पूजा करते थे। अब भी पूजा का असली रूप यही है। दीप इन्हीं सबके लिए जलाए जाते हैं। दरअसल छत्तीसगढ़ के किसान के लिए सोने के रंग से जगमगाते धान की उपज ही उनकी असली लक्ष्मी होती है, तभी तो वे फसल पकने के बाद उसे घर में लाने के बाद धूम- धाम से दीपावली का त्योहार मनाते हैं।

गौरी गौरा पूजा

छत्तीसगढ़ में गौरा-गौरी की पूजा गाँव में सप्ताह भर पहले से ही शुरू हो जाती है। पारंपरिक रूप से गाँव में गौरा पूजा गोड़ जाति द्वारा की जाने वाली पूजा है। यद्यपि इस पूजा में गाँव में सभी लोग शामिल होते है। सबसे पहले फूल कूचने की विधि होती है, जिसमें गौरा- गौरी की मूर्ति बनाने के लिए बाजे-गाजे के साथ मिट्टी लाने जाते हैं। इसके बाद गाँव के बीच में बने चबूतरे जिसे गउरा चौंरा कहा जाता है, के पास एक छोटा गड्ढा खोदकर मुर्गी का अण्डा, तांबें का सिक्का व सात प्रकार के फूलों को, कुँआरे लड़के और लड़कियों के हाथों कुचलवा कर गौरा- गौरी के विवाह समारोह का शुभारंभ करते हैं।
इस परम्परा को ‘फूल कुचरना’ कहा जाता है, और इसी के साथ ‘गउरा पूजा’ का आरंभ हो जाता है। फूल कुचले गए गड्ढे को बेर की कटीली डंगाल से ढककर उस पर एक पत्थर रख दिया जाता है ताकि इस स्थान को कोई अपवित्र ना करे। इसके बाद लाए गए मिट्टी से गाँव के कलाकार शिव-पार्वती (गौरा-गौरी) की मूर्ति बनाते है। शिव का वाहन बैल और पार्वती का वाहन कछुआ बनाया जाता है। गौरा गौरी को रंग बिरंगे रंगों और चमकीले कागजों से सजाया जाता है।
मूर्ति बन जाने के बाद विवाह की रस्मों के पूर्व गाँव का बइगा, व अन्य सदस्य गाँव के मुखिया को बुलाने जाते हैं फिर रात के पहले पहर में सब मिल-जुल कर गौरा-गौरी को परघा कर लाते हैं। तत्पश्चात विधि विधान से गौरी- गौरा के विवाह की सभी रस्में सम्पन्न की जाती है और फिर गौरा चौरा में लाकर लकड़ी का एक पटा रख कर उन्हें स्थापित कर दिया जाता है।
गोर्वधन पूजा.. छत्तीसगढ़ में गोवर्धन पूजा का विशेष महत्व है… सुरुहुती के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा की जाती हैं दूसरे दिन को इंद्र की सामन्ती परंपरा के विरूद्ध श्री कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत की पूजा परंपरा की स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गाय बछड़ों की पूजा की जाती है, उन्हें पकवान खिलाये जाते हैं। विभिन्न पकवानों के भोग लगाकर अन्नकूट मनाया जाता है।
कृषि प्रधान अंचल होने के कारण छत्तीसगढ़ में पशु धन को भगवान की तरह पूजा जाता हैं। गोधन के बिना कृषक असहाय हैं। यही कारण है कि यहाँ दीपावली पर्व पर गोधन की पूजा की जाती है जिसे गोवर्धन पूजा कहते हैं। यूँ तो इस पूजा में अंचल की सभी जातियाँ हिस्सा लेती है परंतु इसमें राउत जाति की भागीदारी प्रमुख रूप से होती है। इस त्यौहार में जितने भी आनुष्ठानिक कार्य होते हैं, वे राउत ही संपन्न करते हैं।
आज के दिनराऊत गाय-बैलों को तालाब ले जाकर नहलाता है, उन्हें सजाता है। तब उनकी घरवालियाँ (राऊताईन) गाय कोठों को साफ करके द्वार पर गोबर के दो पुतले प्रतीक स्वरूप देवता बनाती हैं जिसे गोबरधन कहते हैं, इन्हें बलराम व कृष्ण के प्रतीकके रूप में देखा जाता है। इन पुतलों को चारों ओर से गोबर से घेर कर उनके ऊपर धान की बालियों, मेमरी (एकपौधा जिसके बीज को ठंडाई के काम में लाया जाता है) की मंजरी व सिलियारी के फूलों से सजा दिया जाता है। (ये दोनों पौधे इसी मौसम में उगते हैं।) गोबरधन के सामने मिट्टी से बने कलश पर जिसमें जल भरा होता है, आम के पत्ते रख कर पत्तों से बने दोने में धान भर कर ऊपर मिट्टी का दीपकजलाया जाता है। पूजा के बाद शाम को गाय इस गोबरधन के बने पुतले को रौंदते हुए ही कोठे में प्रवेश करती है।
उमाशंकर साहू
ग्राम – लटेरा, जिला बलौदाबाजार

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