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Opinion : पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों रखें सदनों को चलाने की मंशा

सवाल सिर्फ बैठकों के दिनों के कम होने का ही नहीं, राजस्थान समेत दूसरे कई राज्यों में बैठकें होती भी हैं तो उनका समय भी कम होने लगा है। वजह भी साफ है क्योंकि लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाली इन संस्थाओं की बैठकों को अधिकांश समय शोरशराबे में बीत जाता है।

जयपुरJan 20, 2025 / 05:13 pm

harish Parashar

लेकिन पिछले सालों में विधायिका के इन तीनों की कामकाज पर सवालिया निशान इसलिए उठने लगे हैं क्योंकि हमारी विधायिकाओं की पूरे पांच साल में बैठकें भी इतनी नहीं हो पाती जितनी होनी चाहिए।

विधायिकाओं का हमारे लोकतंत्र में अहम स्थान है। चाहे संसद हो या फिर राज्यों की विधानसभाएं और विधानमंडल, इनके सुचारू व समयबद्ध संचालन की मांग लम्बे समय से उठती रही है। विधायिकाओं के तीन प्रमुख कार्य होते हैं। इनमें कानून बनाना, जनहित के मुद्दों पर चर्चा करना और सरकारी तंत्र की जवाबदेही तय करना शामिल है। लेकिन पिछले सालों में विधायिका के इन तीनों की कामकाज पर सवालिया निशान इसलिए उठने लगे हैं क्योंकि हमारी विधायिकाओं की पूरे पांच साल में बैठकें भी इतनी नहीं हो पाती जितनी होनी चाहिए।
विधायिकाओं के सत्र कितनी अवधि के लिए चलें, इस बारे में समय-समय पर पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलनों में खूब चर्चा भी हुई है। बड़े राज्यों में साल में कम से कम 90 व छोटे राज्यों में 60 दिन बैठकें होने को लेकर प्रस्ताव भी पारित हुए। लेकिन चिंताजनक तस्वीर यही है कि अधिकांश राज्यों में सिर्फ छह माह में एक बार विधानसभा बैठक बुलाने की संवैधानिक बाध्यता को लागू करने की औपचारिकता पूरी की जाती है। हैरत की बात तो यह है कि विधायिकाओं का प्रश्नकाल तक हंगामे की भेंट चढऩे लगे हैं। जबकि प्रश्नकाल को महत्त्वपूर्ण इसलिए माना जाता है कि जनप्रतिनिधियों को अपने क्षेत्र की आवाज उठाने का मौका मिल जाता है। सवाल सिर्फ बैठकों के दिनों के कम होने का ही नहीं, राजस्थान समेत दूसरे कई राज्यों में बैठकें होती भी हैं तो उनका समय भी कम होने लगा है। वजह भी साफ है क्योंकि लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाली इन संस्थाओं की बैठकों को अधिकांश समय शोरशराबे में बीत जाता है।
वैसे भी सदन चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है। हर बार सदनों की बैठकों की शुरुआत में अधिकाधिक विधायी कार्य निपटाने का सरकारों की तरफ से संकल्प दोहराया जाता है। सर्वदलीय बैठकों में यह भरोसा भी दिलाया जाता है कि सदन की बैठकों में व्यवधान के हालात नहीं बनने देंगे। लेकिन जब कार्यवाही होती है तो न तो शालीनता दिखाई देती है और न ही सदन चलाने की मंशा। सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल एक-दूसरे को नीच दिखाने की होड़ में रहते हैं और इसी में सदनों का कीमती समय बर्बाद हो जाता है।
जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रुपए हर साल विधायिकाओं की बैठकों में खर्च होते हैं। जनप्रतिनिधि कहलाने वाले जनता की आवाज नहीं उठाएं और बिना बहस के अहम विधेयक पारित होने लगें इसे उचित नहीं कहा जा सकता। विधायिकाओं की बैठकें तय मापदण्डों के अनुसार तो हो ही बल्कि इनमें व्यवधान भी न हो, इसे पक्ष-प्रतिपक्ष मिलकर ही तय कर सकते हैं।

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