हम शरीर का ही अस्तित्व मानकर जीते हैं, कर्म करते हैं। आत्मा को जानने के प्रश्न हमारे मन में उठते ही नहीं। हां, शास्त्रों को सुनते समय हम आत्मा का विवेचन भी सुनते हैं, किन्तु स्वयं से जोड़ नहीं पाते। अपने से भिन्न किसी वस्तु को आत्मा मान लेते हैं। हम सुनते हैं- अहं ब्रह्मास्मि। हम सुनते हैं-ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। किन्तु व्यवहार में हम शरीर और मन के बाहर नहीं जाते। अपने वातावरण में फंसे रहते हैं। जबकि सत्य यह है कि हम शरीर नहीं हैं, मन भी नहीं हैं। शरीर, मन, बुद्धि हमारे साधन हैं, नश्वर हैं। हम आत्मा के स्वरूप में शाश्वत हैं। अव्यय मन रूप हैं। जिसे हम मन मानते हैं, वह तो प्रतिबिम्ब है, मूल मन का। मूल मन आलम्बन है, असंग है, निर्लेप है, गुणातीत है और सदा साक्षी भाव में रहता है। अत: कर्ता भी नहीं हो सकता किन्तु व्यापक और पूर्ण है। जैसा कि अष्टावक्र गीता में कहा है कि आत्मा साक्षी है, व्यापक है, पूर्ण है, अकेला (अद्वितीय) है, मुक्त है, चैतन्य रूप है, अक्रिय है, संग रहित है, इच्छा रहित है, भ्रम के कारण सांसारिक की तरह लगता है-
आत्मा साक्षी विभु: पूर्ण एकोमुक्तश्चिदक्रिय:।
असंगो निस्पृह: शान्तो भ्रमात्संसारवानिव ॥
(१.१२ अ. गीता)
अहं ब्रह्मास्मि रूप में जब मैं स्वयं ही ब्रह्म हूं तब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मेरा ही वितान यानी फैलाव है। मैं ही सृष्टि में व्याप्त हूं। फिर भी यदि भ्रमित हूं तो इसका कारण माया ही है। माया ने ही शरीर का निर्माण करके उसमें आसक्ति भर दी। कृष्ण कह रहे हैं कि नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत: अर्थात् योगमाया से आवरित होने के कारण मैं सभी के लिए प्रकट नहीं हूं। प्रत्येक जीव रूप ब्रह्म योगमाया से आवरित होकर स्थूल शरीर धारण करता है। जीव चूंकि प्रारब्ध का नक्शा साथ लेकर आता है, पूर्व कर्मों के फलों को भोगने के लिए। अत: प्रत्येक जीव की योगमाया भी स्वतंत्र हो जाती है। बल, शक्ति और क्रिया इन तीन अवस्थाओं से हम माया के स्वरूप को समझ सकते हैं। माया की प्रसुप्त अवस्था को बल कहते हैं। जब कोई कार्य करने का संकल्प हो तब माया के जागने पर बल को शक्ति कहा जाता है। संसार में हम क्रिया रूप में जो भी चेष्टाएं करते हैं या देखते हैं, वे सब शक्तिके ही परिणाम हैं। व्यक्ति के जीवन में शक्ति के अनेक रूप हैं, जैसे शरीर, बुद्धि, मन, प्राण, पोषण और संहार, आवेग और आवेश, सहयोग और विरोध आदि की शक्तियां। ये शक्तियां पुरुष की अर्थात् आत्मा की कही जाती हैं।
आत्मा से शब्द निकलता है (स्वनति) अत: स्व कहा जाता है। जिसका आत्मा शब्दोत्पत्ति में असमर्थ है, वह शब्द मर्यादा से वंचित- पर -है। केवल ‘स्व’ (आत्मा) को तब तक आत्मा नहीं कहा जा सकता जब तक वह किसी तंत्र का अनुगामी नहीं बन जाता। तंत्र की सीमा में ही आत्मा शब्दोत्पत्ति में समर्थ होकर स्व कहलाता है। यदि तंत्र आत्मानुकूल है, तब आत्मा उस तंत्र का नियंत्रक बनता हुआ स्वतंत्र कहलाता है। यदि तंत्र आत्मा के स्वरूप को विकृत करने वाला है, तब वह तंत्र परतंत्र कहलाएगा और तब आत्मा भी परतंत्र ही माना जाएगा। आत्मा स्व है, अनात्मा पर है, प्रकृति तंत्र है। आत्मा को विकसित करने वाला भाव आत्मबन्धु कहा जाता है। आत्मा को आवृत्त करने वाला भाव आत्मरिपु है। एक आत्मा का स्व: है, दूसरा आत्मा का रिपु (पर:)। पुरुष व प्रकृति ही स्थूल सृष्टि में नर-नारी कहे जाते हैं। पुरुष अग्नि प्रधान व स्त्री सोम प्रधान है। सौम्या स्त्री अपने स्वरूप में निर्बल होते हुए भी उपास्य देवता की उपाधि स्त्री को प्राप्त है। क्योंकि बाहर से अबला दिखने वाली स्त्री भीतर बलवान है। अग्नि भीतर निर्बल है, क्योंकि उसके बल का आधार सोम है, वही अग्नि का अन्न है। बल की परिभाषा है संकोच तथा निर्बल की परिभाषा अस्थिर भाव। जैसे ही अग्नि में सोम की आहुति बन्द हुई वैसे ही अग्नि मन्द पड़ता हुआ शान्त हो जाता है। अग्नि विशकलन धर्मा है- एक स्थान पर पिण्ड रूप में नहीं रह सकता। सोम का संकोच भाव उसे घन बनाए रखता है।
स्व के क्षेत्र को ही क्षेत्रज्ञ कहा है जबकि अपरा क्षेत्र है- कर्मभूमि है। कर्मभूमि में शरीर-मन-बुद्धि तीन संस्थाएं हैं। तीनों का अपना-अपना स्वरूप और अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं। आत्मा का स्वभाव (प्रकृति) ही उसकी मर्यादा है। परा प्रकृति की मर्यादा स्वतंत्रता है, अपरा स्वच्छंदता का क्षेत्र है। व्यक्ति चाहे तो इसे मर्यादित करके मानव की तरह आचरण कर सकता है। व्यक्ति चाहे तो स्वच्छंद रहकर पशुवत् जीवनयापन कर सकता है। यहां केवल आहार-निद्रा-भय-मैथुन है। यह शरीर का जगत है। स्वतंत्रता में व्यक्ति यथोचित स्वरूप में जीता है। इसी भाव को व्यक्त करते हुए कृष्ण कह रहे हैं-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
(गीता 6.17)
अर्थात्- दु:खों का नाश करने वाला योग उचित आहार-विहार, उचित कर्म-चेष्टा, उचित सोने-जागने वाला ही होता है। परम्परा एक अभ्यास है। अभ्यास ही मर्यादा का स्वरूप हो जाता है। सूर्योदय से पूर्व जागना, सूर्यास्त के बाद भोजन न करना अभ्यास ही था, जो परम्परा बन गया। ये अच्छे स्वास्थ्य के महामंत्र बन गए। आधुनिक जीवनशैली पर दृष्टि डालें तो भारत की यह पहचान ही खो गई। मानो यह भारत के पिछड़ेपन की निशानी हो। यह स्वच्छंदता का साधारण-सा उदाहरण है जो शरीर से जुड़ा है। स्वच्छंदता का केन्द्र मन है। कामना मन से उठती है। बुद्धि को धक्का देकर कामनापूर्ति के पीछे भागना ही मनमानी है। इसमें एक कामना परा प्रकृति की है जिसे प्रारब्ध कहते हैं। दूसरी कामना अपरा प्रकृति की है। भाग्य को बदलना सहज नहीं है। इन्द्रिय कामना कमजोर मन पर भारी पड़ती है। इनमें कमजोर अथवा चंचल मन आसानी से प्रवाहित हो जाता है। मर्यादा पीछे छूट जाती है।
अग्नि और सोम दोनों मिलकर सृष्टि रचना करते हैं, कर्म करते हैं। अलग-अलग दोनों ही अपूर्ण रहते हुए पूर्णता के लिए दौड़-भाग करते हैं। सोम आहुत होकर तन्मय (आग्नेय) बन जाता है। पिण्डीभूत अवस्था को प्राप्त करता है। अलग स्वभावत: रह नहीं सकता। ऋत होने से उसको आश्रय अपेक्षित रहता है। ऋग्वेद का मंत्र है-
अग्निर्जागार तमृच: कामयन्ते अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योका:।।
यह सोम के आश्रय-कामना का सूचक मंत्र है। अग्नि के जाग्रत होते ही सोम दौडक़र वहां पहुंचता है कि मैं आपका सखा बनकर रहूंगा। अग्नि नहीं दौड़ता सोम की ओर। सत्य रूप है। जीवन व्यवहार का स्वरूप यही है। यही कामना का भी स्वरूप है- संगात् जायते काम:। लोक में एक कहावत है कि विद्या-वामा-बेल की जो संगत में रहता है, ये उसी के लिपट जाती है। यही सोम का स्वच्छंद रूप है।
-क्रमश:
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विशकलन धर्मा = खंड-खंड करने वाला,
रिपु = शत्रु