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वैश्विक समस्या: लक्ष्य से बहुत दूर है प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध

आमजन का दायित्व है कि सरकार से हाथ मिलाकर प्लास्टिक रूपी विभीषिका पर विजय प्राप्त करने में बड़ी भूमिका निभाए। अत्यावश्यक परिस्थितियों और विकल्प न होने की अवस्था में ही प्लास्टिक का उपयोग किया जाए।

जयपुरNov 29, 2024 / 05:08 pm

Hemant Pandey

Plastic

Say no Plastic

अपनी सुविधा के चलते इंसान सामाजिक एवं वातावरणीय दुष्प्रभाव के विचार से दूर रहता है


डॉ. विवेक एस. अग्रवाल, संचार एवं शहरी स्वास्थ्य विशेषज्ञ


सभी स्वैच्छिक संस्थाओं की ओर से प्लास्टिक की बोतलों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग पर, दक्षिण कोरिया के बुसान शहर में आयोजित विश्वस्तरीय वार्ता आईएनसी-5 की बैठक में दुनिया के शीर्ष नेतृत्व द्वारा चर्चा की जा रही है। उद्देश्य है कि एक ऐसा नीतिगत एवं क्रियान्वयन प्रस्ताव तैयार हो, जिसके तहत सभी देश अनिवार्य रूप से समुद्र एवं सतही स्तर पर प्लास्टिक के दुरुपयोग को बंद कर वातावरणीय नुकसान को रोकें। साथ ही इसके विकल्प के लिए शोध पर अपने निवेश को बढ़ावा देने और लोगों में व्याप्त इसके उपयोग की खराब आदत को छोडऩे के लिए अभियान चलाएं। पिछले दो दशक से संभवतया दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं है जो कि प्लास्टिक के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नुकसान से आहत न हुआ हो। प्लास्टिक से बढ़ती स्वास्थ्य समस्या ने इस बाबत त्वरित व सुदृढ़ कार्रवाई के लिए विश्व को सचेत करते हुए कार्रवाई के लिए जागृत किया है। उम्मीद है कि प्लास्टिक पर संधि एक बंधनकारी रूप में पेश की जाएगी। यह तो भविष्य ही बताएगा कि इस बंधनकारी संधि को कितने राष्ट्र, कितने स्तरों पर और कितनी ईमानदारी से धरातल पर उतारेंगे।
यदि भारत के संदर्भ में बात करें तो कई पहल हुई हैं, जिसके तहत सिंगल यूज प्लास्टिक, पतले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया गया। जबकि वास्तविकता यह है कि आज भी इन सबका खुलेआम उपयोग हो रहा है। सीआइआइ की पहल पर पहली बार वर्ष 2021 में भारत में प्लास्टिक संधि को लागू किया गया। इसके तहत व्यापार-उद्योग जगत के साथ सरकार और स्वैच्छिक संगठनों ने वर्ष 2030 के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किए थे, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण पैकेजिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शत प्रतिशत सामग्री को रियूज, रिसाइकल या खाद बनाने के लिए उपयोग में लेने का संकल्प था। यह भी तय किया गया था कि पैकेजिंग में इस्तेमाल ५० प्रतिशत प्लास्टिक और पैकेजिंग में उपयोग होने वाली अन्य सामग्री का एक चौथाई हिस्सा दोबारा से उपयोग में लें। संधि के तहत समस्या उत्पन्न करने वाले एवं अनावश्यक प्लास्टिक पैकेजिंग सामग्री की सूची बनाने का लक्ष्य भी निर्धारित किया गया ताकि उनकी बनावट में परिवर्तन किया जाए। इस संधि पर 54 सदस्यों ने हस्ताक्षर किए थे और एक रोडमैप की तय किया था ताकि लक्ष्यों को जल्द पूरा किया जा सके। संधि के अलग हटकर अगर धरातल पर विश्लेषण किया जाए तो अभी हम लक्ष्यों से बहुत दूर हैं।
हालांकि कुछ औद्योगिक घरानों ने प्लास्टिक के उपयोग को कम करने संबंधी पहल के तहत अपने सीएसआर फंड का उपयोग किया है। इसमें उन्होंने विभिन्न बाजारों को प्लास्टिकमुक्त बनाने और रिसाइकल-रियूज को बढ़ावा देने के लिए सुविधाएं मुहैया करवाई है। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के तहत भी प्लास्टिक का ज्यादा उपयोग करने वाली कंपनियों के सहयोग से विभिन्न शहरों में मटेरियल रिकवरी फैसिलिटीज की स्थापना हुई, लेकिन कुछ अपवाद को छोड़ वे लंबे समय तक धरातल पर नहीं दिखे। इसका मूलभूत कारण आज भी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किए जाने वाले कचरे का मिश्रित स्वरूप है। जहां एक ओर प्लास्टिक के विकल्प की बात कही जा रही है, वहीं इस तथ्य को भी अच्छे से समझना होगा कि जब तक प्लास्टिक को अलग-अलग रूप में एकत्रित नहीं किया जाएगा तब तक यह समस्या बनी रहेगी। वर्तमान परिस्थितियों में अलग-अलग तरीके से प्लास्टिक एकत्र करना दूर की कौड़ी नजर आता है।
दुर्भाग्यवश हम हर दायित्व को शासन का दायित्व मानकर पल्ला झाड़ लेते हैं। शासन का दायित्व होता है कि वह नियम कानून से अनुशासन का दायरा कायम करें, जिसके तहत नागरिक अपने आप को बेहतर व्यवहार के साथ समाज एवं राष्ट्र पर हो रहे किसी भी विपरीत प्रभाव से रोकने में अपनी भूमिका निर्देशानुसार वहन कर सके। लेकिन हकीकत इससे बहुत दूर है। ऐसे में आमजन कानून से अनभिज्ञता के बहाने उनकी अवहेलना करने लगते हैं और उसके दूरगामी प्रभाव के प्रति विचार ही नहीं करते। ऐसा नहीं है कि यह अनभिज्ञता एवं अवहेलना का भाव मात्र कम पढ़े-लिखे या आर्थिक रूप से वंचित में ही होता है, उच्च शिक्षित और सम्पन्न व्यक्ति भी अपने व्यवहार में वातावरण एवं समाज पर हो रहे दुष्प्रभाव के बारे में तनिक भी चिंता नहीं रखते हैं। ऐसा प्लास्टिक के उपयोग के संबंध में तो बहुत ही सामान्य तौर पर देखा जाता है। हालांकि कुछेक प्रतिष्ठानों ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने और उसे अमल में लाने के प्रयास किए हैं, लेकिन संपन्नता के मदहोश में लोग आज भी सिंगल यूज प्लास्टिक की मांग कर बैठते हैं। सिर्फ यह सोचते हुए कि क्या फर्क पड़ता है? अपनी सुविधा के चलते इंसान सामाजिक एवं वातावरणीय दुष्प्रभाव के विचार से बहुत दूर रहता है।
तथ्य तो यह है कि प्लास्टिक जैसी वस्तु के समुद्र में फेंकने के बाद वह समुद्री जीवों, जल एवं अन्य माध्यम से पुन: शरीर में प्रवेश कर जाती है और उस फेंकने वाले की सेहत पर ही विपरीत प्रभाव छोड़ जाती है। वैश्विक स्तर पर यह भी माना गया है कि प्लास्टिक के साथ उसको बनाने में उपयोग किए जाने वाले रसायन भी संपूर्ण सृष्टि और जैव विविधता पर अपने दुष्प्रभाव छोड़ते है। इनसे बचाव के लिए और दुष्प्रभाव पर नियंत्रण के लिए आवश्यक है कि समस्त राष्ट्र अपने लिए कुछ ऐसे लक्ष्य निर्धारित करें जो कि उनके योगदान को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हों। अन्यथा यह भी अनेकानेक संधियों में से एक बन कर रह जाएगी और प्लास्टिक का तांडव ना सिर्फ चलता रहेगा बल्कि बढ़ता रहेगा। इस संधि से वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक के उत्पादन को कम करने के साथ-साथ उसके विकल्प खोजने के लिए संसाधन को पर्याप्त रूप से उपलब्ध कराने पर भी बल दिया गया है। लेकिन आज के संदर्भ में यह सत्य है कि बिना विकल्प तलाशे प्लास्टिक से निजात नहीं पाया जा सकता है।

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