बताया जाता है कि रात में उस सेठ के सपने में हनुमान जी आए और कहा कि हमको यहीं रहने दो, हम यहीं पर विश्राम करेंगे। सुबह हुई तो सेठ हनुमान जी के निर्देश के मुताबिक वह मूर्ति वहीं छोड़कर घर लौट गया। उसकी मनोकामना पूर्ण हुई और वह राजी खुशी स अपना जीवन बिताने लगा।
औरंगजेब ने मूर्ति को किले में कैद करनी चाही लेकिन हनुमान जी टस से मस नहीं हुए उस समय बाघम्बरी गद्दी में बालगिरी महंत रहते थे। माघ मेले के समय में आज जहां मंदिर है, उस जगह पर उन्हें स्थान मिला था। उन्हें मूर्ति नदी में दिखाई दी। मूर्ति को बाहर निकाल कर हनुमान जी की पूजा शुरू हो गई। औरंगजेब के शासनकाल में यहां मेला लगने लगा।
भक्तों का सैलाब देख औरंगजेब ने हनुमान जी की मूर्ति को बिल्कुल सटे हुए अपने किले में ले जाना चाहा। औरंगजेब के कहने पर हनुमान जी की मूर्ति को खोदकर किले में ले जाने की कोशिश की गई लेकिन मूर्ति टस से मस नहीं हुई।
बल्कि औरंगजेब के खोदवाने के कारण मूर्ति और नीचे धंसती चली गई जिससे और मुश्किलें बढ़ती गई। औरंगजेब के सेना के सिपाही गंभीर बीमारी से पीड़ित हो गए। बताते हैं कि औरंगजेब के सपने में भी हनुमान जी आए और उसे एहसास हुआ जैसे हनुमान जी कह रहे हों कि हमें यही रहने दो वरना किला ढह जाएगा। फिर अकबर ने मूर्ति को लेन का लाने का विचार त्याग दिया।
लेकिन, मंदिर के महंत बलवीर गिरी महाराज के अनुसार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ साथ पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सरदार बल्लब भाई पटेल और चन्द्र शेखर आज़ाद जैसे तमाम विभूतियों ने अपने सर को यहां झुकाया, पूजन किया और अपने लिए और अपने देश के लिए मनोकामन मांगी। यह कहा जाता है कि यहां मांगी गई मनोकामना अक्सर पूरी होती है।
लेटे हनुमान जी के अबतक कुल 8 महंत हुए हैं पीढ़ी दर पीढ़ी हनुमान पूजन की परंपरा चलती रही। विचारानंद गिरि के बाद शिवानंद, राजेंद्र गिरि महंत बने। बलदेव गिरि, भगवान गिरि, नरेंद्र गिरि महंत बने। नरेंद्र गिरि की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत के बाद उनके शिष्य बलवीर गिरि इस समय महंत की गद्दी पर विराजमान हैं।
तब से यहां हनुमान जी की मूर्ति जंजीर से बंधी मिलती है। दूसरी विशेष मूर्ति संगम के किनारे है। यहां प्रयागराज में लेटी हुई मुद्रा यानी विश्राम के रूप में हनुमान जी मौजूद हैं। जबकि अयोध्या में बैठकर लड्डू खाती हुई मुद्रा में हनुमान जी विराजमान हैं।