प्रयागराज

Jawaharlal Nehru Death Anniversary: ‘जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते…’ नेहरू की मौत पर लिखी उस दौर के 2 बड़े शायरों की नज्में

Jawaharlal Nehru Death Anniversary: पंडित नेहरू को उनकी मौत के बाद राजनीतिक लोगों ने ही नहीं शायरों ने भी अपनी तरह से याद किया था।

प्रयागराजMay 27, 2023 / 03:41 pm

Rizwan Pundeer

पंडित नेहरू प्रयागराज में पैदा हुए थे। वो अपने वक्त के बड़े वकीलों में शुमार रहे।

Jawaharlal Nehru Death Anniversary: देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आज यानी 27 मई को 59वीं पुण्यतिथि है। करीब 17 साल तक लगातार पीएम रहे पंडित नेहरू का 74 साल की उम्र में 27 मई, 1964 में निधन हो गया था। पंडित नेहरू को याद करते हुए राजनीतिक लोग उनको आजाद भारत को गढ़ने वाला नेता कहते हैं, वहीं उनकी मौत के बाद उस वक्त के 2 बड़े शायरों ने नज्म के जरिए उनको याद किया था। इनमें एक साहिल लुधियानवी हैं तो दूसरे कैफी आजमी भी हैं, जो तमाम उम्र कांग्रेस के आलोचकों में शामिल रहे।

20वीं सदी के सबसे बेहतरीन और कामयाब शायर और गीतकार कहे जाने वाले साहिर लुधियानवी ने एक नज्म लिखी थी। पंडित नेहरू पर लिखी ये नज्म कुछ यूं है-

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते
धड़कनें रुकने से अरमान नहीं मर जाते
सांस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते

होंठ जम जाने से फरमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है

वो जो हर दीन से मुंकिर था हर इक धर्म से दूर
फिर भी हर दीन हर एक धर्म का गमख़्वार रहा

सारी कोमों के गुनाहों का कड़ा बोझ लिए
उम्र-भर सूरत-ए-ईसा जो सर-ए-दार रहा

जिसने इंसानों की तक़्सीम के सदमे झेले
फिर भी इंसा की उखुव्त का परस्तार रहा

जिस की नज़रों में था आलमी तहजीब का ख़्वाब
जिस का हर सांस नए अहद का मेमार रहा

मौत और जीस्त के संगम पे परेशां क्यों हो
उसका बख़्शा हुआ सह-रंग-ए-अलम लेके चलो

जो तुम्हें जादा-ए-मंजिल का पता देता है
अपनी पेशानी पर वो नक़्श-ए-कदम ले के चलो

वो जो हमराज रहा हाजिर-ओ-मुस्तकबिल का
उस के ख़्वाबों की खुशी रूह का गम लेके चलो

जिस की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते

धड़कनें रुकने से अरमान नहीं मर जाते
सांस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते

होंठ जम जाने से फरमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है।


नेहरू के लिए लिखी कैफी आजमी की नज्म

मैंने तन्हा कभी उस को देखा नहीं
फिर भी जब उस को देखा वो तन्हा मिला
जैसे सहरा में चश्मा कहीं
या समुन्दर में मीनार-ए-नूर
या कोई फिक्र-ए-औहाम में
फिक्र सदियों अकेली अकेली रही
जहन सदियों अकेला अकेला मिला
और अकेला अकेला भटकता रहा
हर नए हर पुराने जमाने में वो
बे-जबां तीरगी में कभी
और कभी चीखती धूप में
चाँदनी में कभी ख़्वाब की
उस की तकदीर थी इक मुसलसल तलाश
खुद को ढूंढा किया हर फसाने में वो
बोझ से अपने उस की कमर झुक गई
कद मगर और कुछ और बढ़ता रहा
खैर-ओ-शर की कोई जंग हो
ज़िंदगी का हो कोई जिहाद
वो हमेशा हुआ सब से पहले शहीद
सब से पहले वो सूली पे चढ़ता रहा
जिन तकाजों ने उस को दिया था जनम
उन की आगोश में फिर समाया न वो
खून में वेद गूंजे हुए
और जबीं पर फरोजां अजां
और सीने पे रक़्साँ सलीब
बे-झिझक सब के काबू में आया न वो
हाथ में उस के क्या था जो देता हमें
सिर्फ़ इक कील उस कील का इक निशां
नश्शा-ए-मय कोई चीज़ है
इक घड़ी दो घड़ी एक रात
और हासिल वही दर्द-ए-सर
उस ने ज़िन्दां में लेकिन पिया था जो जहर
उठ के सीने से बैठा न इस का धुआं।

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