आपको बता दें कि कैराना-नूरपुर दोनों क्षेत्रों में औसतन 15 फीसदी दलित मतदाता हैं। इनके दम पर चुनाव परिणामों को पलटा जा सकता है। इन उपचुनावों को भाजपा के खिलाफ संयुक्त विपक्ष का 2019 चुनाव से पहले ग्राउंड टेस्ट माना जा रहा है। यही कारण है कि विपक्षी नेताओं में इस बात को लेकर चर्चा है कि बहन जी ने गोरखपुर और फूलपुर चुनाव की तरह दलितों को इस चुनाव में भी एक ऐसी पार्टी को वोट करने को को क्यों नहीं कहा जो भाजपा को हरा सके। जबकि उन्हें बखूबी पता है कि बसपा के समर्थन का ही परिणाम था कि गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा के गढ़ में सपा प्रत्याशियों की अप्रत्याशित जीत हुई थी।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कैराना-नूरपुर सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है। इसलिए मायावती ने जान बूझकर प्रत्यक्ष रूप से समर्थन की घोषणा नहीं की हैं। इस बारे में बसपा के एक नेता का कहना है कि इसके पीछे बहन जी का मकसद संवेदनशील क्षेत्रों में वोटों के ध्रुवीकरण को रोकने की है ताकि भाजपा जाट और गुज्जर के साथ दलित वोटबैंक को भी अपने पक्ष में न कर ले। हालांकि पार्टी के कार्यकर्ता अपने एसपी और आरएलडी समकक्षों के साथ मिलकर काम करे हैं लेकिन बावजूद इसके गोरखपुर-फूलपुर की तरह बीएसपी की तरफ से यहां कोई आक्रामक प्रचार नहीं हुआ। दूसरी तरफ शनिवार की मीटिंग में मायावती ने यहां तक कह दिया था कि यदि सीटों का सम्मानजनक बंटवारा नहीं हुआ तो वह 2019 का चुनाव अकेले लड़ेंगी।