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विवाह से पहले सीता ने क्यों कह दिया था अब आ गए ‘तपस्या के दिन’

परंपरा- धर्म से विमुख हो चुके समय में भी जनकपुर के ग्रामीण रामजी से निभाते हैं यह नाता- धर्म की स्थापना के लिए अयोध्या में अवतरित हुए परमेश्वर जब बने जनकपुर के पाहुन- जनकपुर से अयोध्या तक छा गई थी खुशी, ऐसा था राजा जनक और दशरथ के बीच का संवाद…।

Sep 23, 2022 / 04:17 pm

दीपेश तिवारी

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अपनी प्राणों से प्रिय पुत्री के सुयोग्य वर के लिए प्रतीक्षा करती माता सुनयना धनुष भंग होते ही विह्वल हो गईं। जिस सुदर्शन युवक को देखते ही पूरा जनकपुर पगला गया था, राजपथ पर चलते समय नगरवासियों के बच्चे जिसे छू भर लेने को लालायित हो रहे थे, पिछले तीन दिनों से जिसकी चर्चा से राजमहल का कोना कोना गूंज रहा था, वह अब सहज ही उन्हें बेटे के रूप में मिल गया था। माँ ने टूट कर देखा बेटी हो ओर! उनका का रोम रोम कह रहा था, सारा ऋण उतार दिया बेटी! तेरे कारण जनम जनम की प्यास बुझ गयी…

राजा जनक की आंखों से लगातार अश्रु बह रहे थे। जगत नियंता अब उनके दामाद थे। पुरुष सामान्यतः अपने कंधे से विद्वता की चादर नहीं उतारता, पर जनक के ऊपर से हर आवरण हट गया था। विद्वता के तीर्थ जनकपुर के राजा जनक इस समय पिता थे, केवल पिता…

वे उठे और जा कर राजर्षि विश्वामित्र के चरणों में झुक गए। राजर्षि ने आशीष दे कर कहा,” शिव धनुष का निर्माण जिस हेतु हुआ था, वह पूर्ण हुआ। यह उत्सव का दिन है राजन! युग को अपना नायक मिल गया। उत्सव की घोषणा हो और अयोध्या में सन्देश भेजा जाय।”

“किन्तु एक परीक्षा अब भी शेष है गुरुदेव!” राजा जनक के मुख पर रहस्यमय मुस्कान थी।
“उसमें हमारी तुम्हारी कोई भूमिका नहीं राजन! वह राम का काज है, वे ही करें… तुम अपनी करो।” विश्वामित्र के मुख पर सन्तोष था।

राजा ने आज्ञा दी- वर्ष भर के लिए प्रजा को कर मुक्त किया जाय! हर विपन्न परिवार को वर्ष भर की आवश्यकता बराबर अन्न-धन दिया जाय। छोटे अपराधों में पकड़े गए बंदियों को मुक्त कर दिया जाय। नगर में उत्सव की घोषणा हो।

जनकपुर झूम उठा! धर्म की स्थापना के लिए अयोध्या में अवतरित हुए परमेश्वर अब जनकपुर के पाहुन थे, और जनकपुर को यह सौभाग्य दिलाया था सिया ने… भावविह्वल नगरजन ने प्रतिज्ञा ली- हम और हमारी सन्तति सृष्टि के अंत तक यह नाता निबाहेंगे। जगतजननी हमारी हर पीढ़ी के लिए बेटी ही रहेंगी और रामजी पाहुन! यह नाता कभी न टूटेगा… असंख्य युग बीत गए। कलियुग के प्रभाव में धर्म से विमुख हो चुके समय में भी जनकपुर के ग्रामीण यह नाता निभाते हैं।

राजा काम में लगे। अयोध्या में सन्देश भेजा गया, पुत्र की वीरता की कहानियां सुन सुन कर तृप्त हुए राजा दशरथ ने बारात सजाई, और राम विवाह की साक्षी होने निकली समूची अयोध्या एक दिन जनकपुर के पास कमला नदी के तट पर टिक गई।
बारात की अगवानी को नगर के बाहर आये महाराज जनक को गले लगा कर राजा दशरथ ने पूछा- आपकी कितनी पुत्रियां हैं मित्र?
गदगद जनक ने कहा, “कुल चार हैं समधी जी! दो मेरी, और दो मेरे अनुज की!”
– एक निवेदन करूँ मित्र?
– आदेश करिए महाराज!
– मेरे भी चार पुत्र हैं मित्र! अब बुढ़ापे में कहाँ उनके योग्य कन्याएं ढूंढता फिरूँगा। एक का चयन आपने किया है, तीन के लिए यह गरीब हाथ पसार रहा है। लगे हाथ हम दोनों मुक्त हो जाते…”

जनक ने तृप्त हो कर कहा,” मेरा सौभाग्य है महाराज! चारों राजकुमार अब से मेरे पुत्र हुए और चारों राजकुमारियां आपकी पुत्रियां हुईं। पूरा जनकपुर आपका है महाराज, आप इस निर्धन राज्य में प्रवेश करें…”
बारात नगर में आयी। अयोध्या और जनकपुर के नगरवासी एक दूसरे में घुल मिल गए। उधर अंतः पुर में सन्देश गया, विवाह चारों कन्याओं का होना है। सिया के राम होंगे और उर्मिला के लक्ष्मण। माण्डवी के भरत और श्रुतिकीर्ति के शत्रुघ्न।
अपने कक्ष में बहनों के साथ बैठी सिया ने कहा, “अब अपने खिलौने छोटी बच्चियों को दे दो बहनों! हमारे खेल के दिन समाप्त हुए, अब कठिन तपस्या के दिन आ चुके हैं।”
सिया क्या कह रही थीं, यह तीनों में कोई न समझ सका! उर्मिला की आँखों में वह सुन्दर गौरवर्णी युवक बसा हुआ था, और अधरों पर मुस्कान…


क्रमशः

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