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राजनीति

आखिर राहुल गांधी मान क्यों नहीं लेते पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बात?

Rahul Gandhi Resignation का समाधान नहीं निकाल पा रही है कांग्रेस
Indira Gandhi से राहुल गांंधी ले सकते हैं सीख
political Crisis में समझौता करना लाभकारी होता है

Mar 16, 2020 / 03:15 pm

Dhirendra

rahul gandhi
नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ( Congress President Rahul Gandhi ) पद छोड़ने ( Resignation ) को लेकर अपने फैसले पर अडिग हैं। दूसरी तरफ पार्टी के वरिष्ठ नेता इस बात पर अड़े हैं कि उनके सिवाय अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी और कोई नहीं संभाल सकता। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में बहुत हद तक इस बात पर एक राय भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ( Congress President Rahul Gandhi ) को लोकसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा की राह पर चलकर देश की राजनीति में कमबैक करने की जरूरत है।
अब अहम सवाल यह है कि राहुल गांधी कांग्रेस के इतिहास को ध्यान में रखते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बात मान क्यों नहीं लेते? यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि न तो किसी वरिष्ठ नेता और न ही किसी युवा नेता का व्यक्तित्व ऐसा है जिसका असर राष्ट्रीय स्तर पर सर्व स्वीकार्य हो।
दूसरी बात ये भी है कि आजादी के बाद से पार्टी में हमेशा नेतृत्व को लेकर सर्व स्वीकार्यता गांधी परिवार के सदस्य पर ही बनती रही है। बताया तो यहां तक जा रहा है कि यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी खुद भी राहुल गांधी के इस्तीफे ( Rahul Gandhi Resignation ) को लेकर अड़ियल रुख से खुश नहीं हैं।
1. चुनौती को स्वीकार कर लेना ही बेहतर विकल्प

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि बेहतरी इसी में है कि इंदिरा गांधी ( Indira Gandhi ) की तरह प्रतिकूल सियासी परिस्थितियों के बावजूद राहुल गांधी को वर्तमान चुनौतियों स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
ठीक उसी तरह जैसा कि इंदिरा गांधी ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद पार्टी की बागडोर को संभाला।

इस बात को वर्ष 1967 के आरंभ और चौथे आम चुनाव के समय से शुरू हुए सियासी घटनाक्रम के आलोक में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
2. नई लकीर खीचने में कामयाब हुईं थी इंदिरा

दरअसल, 52 साल पहले इंदिरा गांधी ( Indira Gandhi ) ने वरिष्ठ नेताओं के न चाहते हुए भी पार्टी की कमान को अपने हाथों में लिया और सभी सियासी झंझावातों से पार पाते हुए देश को नई दिशा देने में कामयाब हुईं।
चौथे राष्ट्रपति के चुनाव के झटकों ने कांग्रेस पार्टी, सरकार और पार्टी के अंदरूनी समीकरणों में दूरगामी बदलावों की शुरुआत की।

इस घटना को कांग्रेस पार्टी के उस समय के अंतरर्विरोध को भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया में एक विभाजक रेखा की तरह माना जाता है। इसके बाद इंदिरा गांधी ( Indira Gandhi ) एक सशक्त राजनेता के रूप में उभरकर सामने आईं।
3. कमोवेश आज भी वही परिस्थितियां हैं

इंदिरा के उस दौर को आज के संदर्भ में याद करना इसलिए जरूरी है क्योंकि इंदिरा के जमाने में जो नैरेटिव था कमोवेश आज भी वैसी ही स्थितियां हैं।
ऐसा इसलिए कि चौथे आम चुनाव के वक्त पार्टी पर इंदिरा गांधी का कोई खास प्रभाव नहीं था। इस बात की कोई गारंटी नहीं थी 1967 का चुनाव इंदिरा जीत ही जाएंगी।

लेकिन इसका मुकाबला करने के लिए इंदिरा गांधी ( Indira Gandhi ) ने 1966 से अपना अलग रास्ता बनाना शुरू कर दिया था।
4. रुपए का मूल्य गिराना नहीं आया काम

अमरीका और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव में उन्होंने भारतीय रुपए की कीमत कम करने का पहला विवादास्पद फैसला लिया था। यह नरेंद्र मोदी द्वारा 1,000 और 500 रुपए के नोट बंद करने के फैसले से भी बड़़ा़ विवादास्पद फैसला था। इसने पार्टी नेतृत्व को भी नाराज कर दिया था।
लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ( Prime minister Indira Gandhi ) इस लाइन पर अधिक समय तक नहीं टिक सकीं और महीने भर के भीतर उन्होंने वियतनाम के हनोई और हाइफौंग शहर पर अमरीकी बमबारी की तीखी आलोचना कर दी और रुपए की कीमत कम करने का लाभ भारत को नहीं मिला।
5. सोवियत संघ से हाथ मिलानेे के बाद इंदिरा को मिली नई पहचान

इसका सीधा असर यह हुआ इंदिरा गांधी ने रूस (तत्कालीन सोवियत संघ ) की तरफ हाथ बढ़ाया। उनका यह कदम एक तरफ अमरीका को तो दूसरी तरफ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की मंडली के प्रभाव से खुद को बाहर निकालने की रणनीति थी।
यही कारण है कि 1967 के आम चुनाव से कुछ महीने पहले इंदिरा गांधी ने पार्टी संगठन को दरकिनार करते हुए जनता के साथ सीधा संवाद बनाना शुरू कर दिया। लगभग उसी अंदाज में पीएम नरेंद्र मोदी भी कई मुद्दों पर जनता से सीधे संवाद करते दिखाई देते हैं। इस मामले में इंदिरा को मोदी का अग्रदूत माना जा सकता है।
येे बात अलग है कि इसके बावजूद उन्हें मोरारजी देसाई को उप-प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा था। लेकिन ये भी सच है कि वर्ष 1967 में कांग्रेस को हुए चुनावी नुकसान ने इंदिरा गांधी को अपने दम पर नेता के तौर पर उभरने का मौका दिया।
6. इंदिरा की राह में अपनों ने भी बिछाए कांटे

मामला यहीं पर समाप्त नहीं हुआ। पार्टी के वरिष्ठ नेता के कामराज, एस निजालिंगप्पा, अतुल्य घोष और एन संजीव रेड्डी से उनका संघर्ष बिना किसी नतीजे के दो वर्षों से ज्यादा समय तक चलता रहा।
इन बातों की परवाह किए बगैर उन्होंने बतौर पीएम 1967 के मध्य में लोकलुभावन 10 सूत्रीय कार्यक्रम का ऐलान करने में कामयाब रहीं।
दूसरी तरफ बतौर वित्त मंत्री मोरारजी देसाई ने भी सरकार की लोकप्रियता को बढ़ाने में कोई खास मदद न कर गोल्ड कंट्रोल एक्ट लाकर अपनी स्वायत्त सत्ता का परिचय दिया था।
इन सबके बावजूद इंदिरा गांधी पार्टी के ओल्ड गार्ड से निर्णायक लड़ाई के लिए सही मौके का इंतजार करती रहीं।

7. मौका मिलते ही इंदिरा ने नहीं की परवाह

जिस मौके की तलाश में इंदिरा 1967 से थीं वो मौका उन्हें 1969 में मिला जब सेवारत राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का निधन होने के बाद उन्होंने वीवी गिरि को कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया।
इससे पहले तक उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाने की प्रथा का पालन किया जा रहा था, लेकिन, कांग्रेस सिंडिकेट गिरि को पदोन्नति देने के पक्ष में नहीं था और लोकसभा अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति बनाना चाहता था। इंदिरा गांधी ने ऐसा नहीं होने दिया।
8. विरोधी गुट को तरीके से दी मात

इंदिरा गांधी ने 1952 के प्रेसिडेंशियल एंड वाइस प्रेसिडेंशियल एक्ट का हवाला देते हुए पार्टी सिंडिकेट गुट के रेड्डी के पक्ष में व्हिप जारी करनेे से इनकार कर दिया। साथ ही वीवी गिरी को अपना उम्मीदवार बना दिया। यानि एक गुट के प्रत्याशी नीलम संजी रेड्डी बने तो इंदिरा गुट के प्रत्याशी वीवी गिरि बने।
इस बात की उम्मीद ज्यादा थी कि नीलम संजीव रेड्डी चुनाव जीत जाएंगे। ऐसा इसलिए कि संगठन पर कामराज गुट की पकड़ ज्यादा मजबूत थी। लेकिन सेंकेंड प्रिफरेंस वोट के आधार पर वीवी गिरि के वोटों का आंकड़ा 4 लाख 20 हजार 077 पर पहुंच गया और रेड्डी 4,05,427 मतों के साथ पीछे रह गए।
9. इंदिरा का दौर

वामपंथी पार्टियों के सहयोग से वीवी गिरि को राष्ट्रपति बनाने के कामयाबी मिलने के बाद इंदिरा गांधी की पकड़ संगठन पर भी मजबूत हो गई। उसके बाद 1984 तक कांग्रेस में किसी ने उनके नेतृत्व को चुनौती देने की हिमाकत नहीं की। हालांकि आपातकाल की वजह से 1977 के चुनाव में उन्हें हार मुंह देखना पड़ा। लेकिन उन्होंने 1980 में गरीबी हटाओं के नारे पर सत्ता में दमदार वापसी की।
10. सास की तरह सोनिया ने भी अपने नेतृत्व का मनवाया लोहा

ठीक उसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ( Prime minister Rajiv Gandhi ) निधन के बाद सोनिया गांधी ( Sonia Gandhi ) ने 1998 में कांग्रेस की ओर से जारी सभी बाधाओं को पार करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। करीब 19 साल तक उन्हीं के हाथों में कांग्रेस की बागडोर रही। इस दौरान उन्होंने पार्टी के संगठन और सरकार दोनों पर पकड़ बनाए रखी। 2017 में उन्होंने राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी।
ये बात सही है कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी को जिस सियासी सफलता की दरकार है, वो अभी तक वो हासिल नहीं कर पाए हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि वो पीछेे हट जाएं।
पीछे हटना कांग्रेस के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों का समाधान नहीं है। उन्हें पार्टी के अंदर और बाहर दोनों मोर्चों पर जूझते हुए इंदिरा की तरह कांग्रेस की सत्ता में वापसी सुनिश्चित करने के लिए काम करने की जरूरत है।
यह तभी संभव हो पाएगा जब राहुल गांधी ( Rahul Gandhi ) अपने फैसले से पीछे हटते हुए खुलकर पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से मिल रही चुनौतियों काा डटकर मुकाबला करें और जनता से सीधा संवाद स्थापित करें।

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