75 वाले फॉर्मूले के बाद बाबूलाल गौर को 2018 के विधानसभा चुनाव में टिकट मिलना मुश्किल था। ऐसे में बाबूलाल गौर इस गोविंदपुरा सीट अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे। बाबूलाल ने पार्टी से कह दिया कि अगर मुझे नहीं तो बहू कृष्णा गौर को यहां से टिकट मिले। बाबूलाल के किनारे होने के बाद इस सीट पर कई दावेदार थे। पार्टी जब कृष्णा गौर की टिकट को लेकर टालमटोल कर रही थी तो बाबूलाल ने निर्दलीय ही चुनाव लड़ाने का फैसला कर लिया था।
बाबूलाल गौर के तेवर के आगे आखिरी में पार्टी झुक गई। नवंबर 2018 के पहले सप्ताह में पार्टी ने कृष्णा गौर की उम्मीदवारी घोषित कर दी। उसके बाद टिकट के दूसरे दावेदारों ने भोपाल स्थित बीजेपी दफ्तर में जाकर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। लेकिन कृष्णा गौर ने बखूबी साधते हुए इस चुनाव में जीत हासिल की। इसके साथ ही कृष्णा गौर की म्यूनिसिपल की राजनीति से प्रदेश की राजनीति में एंट्री हो गई।
कृष्णा गौर का जन्म इंदौर में हुआ है। वह पूरी तरह से भारतीय परिवार में पली-बढ़ी हैं। बाबूलाल गौर के बेटे पुरुषोत्तम गौर से उनकी शादी हुई थी। लेकिन असमायिक निधन से परिवार को गहरा सदमा लगा। उस वक्त बाबूलाल गौर मध्यप्रदेश के सीएम थे। गौर परिवार के लिए मुश्किल घड़ी थी, ऐसे वक्त में कृष्णा ने परिवार को संभाला। उसके बाद वह ससुर के साथ कदम से कदम मिलकर चलती रहीं। पंचायत और नगरीय चुनाव में उन्होंने अहम भूमिका निभाईं। बाबूलाल ने इसके बाद उन्हें राज्य पर्यटन निगम का अध्यक्ष बना राज्य मंत्री का दर्जा दे दिया। लेकिन उनके इस फैसले पर विवाद काफी हुआ तो कृष्णा गौर को पद छोड़ना पड़ा।
बाबूलाल गौर इस दौरान कई बार पार्टी लाइन से हटकर बयान भी देते रहें। लेकिन कृष्णा गौर ने अच्छे से इन विवादों को हैंडल किया। साथ ही ससुर बाबूलाल गौर को डिफेंड किया। इस दौरान कृष्णा सुलझी हुई नेत्री के रूप में अपने आप को पेश की।
ससुर बाबूलाल गौर एक तरीके से राजनीति में कृष्णा गौर संरक्षक थे। उनके छत्रछात्रा में ही कृष्णा गौर खुद को राजनीति में निखारा। लेकिन अब बाबूलाल गौर नहीं रहे, ऐसे में कृष्णा गौर अब खुद के बुते ही अपनी पहचान बनानी होगी। तभी राजनीति में बाबूलाल गौर की विरासत को संभाल सकती है। और खुद की राजनीतिक करियर को भी एक उड़ान दे सकती हैं।