कुछ ऐसा रहा था सफर
2004 में उन्हें जूनियर नेशनल टीम में जगह मिली। दो साल बाद ही कोलंबो में साउथ एशियन गेम्स में सीनियर टीम का हिस्सा बन गए। बहरहाल टीम में अभी उन्हें अपनी जगह पक्की करनी थी। 2008 में इंडिया ने हॉकी का जूनियर विश्व कप जीता। पीआर श्रीजेश को बेहतरीन प्रदर्शन का इनाम मिला। उन्हें टूर्नामेंट का बेस्ट गोलकीपर चुना गया। इतिहास में स्नातक पीआर श्रीजेश आज भले ही इतिहास रच रहे हैं। लेकिन सीनियर टीम में नियमित जगह बनाने के लिए उनका संघर्ष लंबा चला। 2011 में उन्होंने सीनियर टीम से अपनी जगह पक्की कर ली। श्रीजेश ने अपने आप को साबित किया और प्रदर्शन में निरंतरता बरकरार रखी।
उनकी जिंदगी का सबसे अहम मोड़ 2014 में आया। इंडियन एशियाड हॉकी फाइनल में भारत-पाकिस्तान आमने-सामने थे। समय समाप्त होने तक कांटे का मुकाबला 1-1 से बराबर था। फैसला पेनाल्टी शूट आउट से होना था। इंडिया को गोल्ड मेडल और रियो ओलंपिक का सीधा टिकट दिलाने का दारोमदार वाइस कैप्टन पीआर श्रीजेश के कंधों पर था। अब्दुल हसीम खान और मुहम्मद उमर की कोशिश को नाकाम कर यह काम उन्होंने बखूबी किया।
ममी बने थे फिर भी खत्म किया सूखा
उनके करियर की एक और घटना का जिक्र यहां करना जरूरी हो जाता है। रायपुर में 2015 में हॉकी वल्र्ड लीग का मैच खेला जा रहा था। चोटिल पीआर श्रीजेश के शरीर का आधा हिस्सा पट्टियों में लिपटा और रह-रहकर दर्द उठ रहा था। तीन पेनकिलर खाकर गोलपोस्ट की रखवाली के लिये मैदान पर उतरे खिलाड़ी ने शरीर पर बंधी पट्टियों की ओर इशारा कर साथियों से मजाक में कहा, बिल्कुल ममी लग रहा हूं। कांस्य पदक के लिए इंडिया का मुकाबला हॉलैंड से था। अंतिम समय में फैसला पेनाल्टी शूटआउट से होना था। आखिरकार उन्होंने शानदार बचाव कर टीम को जीत दिलाई। इसी के साथ भारतीय हॉकी टीम ने एफआईएच के टूर्नामेंटों में 33 वर्ष से चला आ रहा पदकों का सूखा खत्म कर दिया। कभी अपनी मंजिल तलाश रहे इस हॉकी खिलाड़ी की उपलब्धि का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि उनके नाम पर केरल में सड़क का नाम रखा गया है। रियो ओलंपिक 2016 में श्रीजेश न सिर्फ गोलपोस्ट की रखवाली की बल्कि भारतीय टीम का नेतृत्व भी किया था।