स्त्री अपनी देह और अपने श्रम पर अपना अधिकार चाहती है। लेकिन इसे हमेशा शुचितवाद के पुराने चश्मे से देखा जाता है। हमे इस बात को ठीक से समझना होगा कि अधिकार की यह मांग उन्मुक्त स्वेच्छाचार की मांग नहीं है। जब हम अपनी देह पर अपने अधिकार की बात करती हैं तो इसका अर्थ सिर्फ अपनी रागात्मक अनुभूतियों और संबंधों का स्वीकार भर नहीं होता बल्कि इसमें अपनी देह पर किसी पुरुष के अनचाहे आधिपत्य का अस्वीकार या नकार भी शामिल होता है। पितृसत्ता स्त्री के उसी अस्वीकार या नकार से डरती है। वह इस स्थिति को नहीं आने देना चाहती परिणामतः देह पर स्त्रियों के अधिकार की अवधारणा को स्वेच्छाचार कह कर ख़ारिज करने की कोशिश करती है। स्त्रीवादी साहित्य में दैहिक संवेदनाओं के स्वीकार की बात शायद ज्यादा आई है इसलिए उसे ही आलोचकों ने भी स्त्री विमर्श का आवश्यक सूत्र मान लिया। इसका असर यह हुआ कि आज जब किसी कहानी या उपन्यास में कोई स्त्री चरित्र अपनी देह पर किसी अवांछित पुरुष के आधिपत्य को नकारती है तो उसे शुचितवाद के खांचे में डाल दिया जाता है। दरअसल दैहिक संवेदनाओं के स्वीकार और किसी अवांछित व्यक्ति के आधिपत्य के नकार को एक साथ रख कर देखने की जरूरत है। वह अवांछित व्यक्ति पति, प्रेमी, मित्र या अपरिचित कोई भी हो सकता है। ये दोनों विरोधी नहीं, एक-दूसरे के पूरक हैं।
पितृसत्ता एक सामाजिक स्थिति है, वर्षों से चली आ रही एक ऐसी व्यवस्था जिसमें स्त्रियां हमेशा अधीनस्थ की भूमिका में होती हैं। जहाँ एक सुनियोजित तरीके से उसका अमानवीकरण किया गया है। उसे उसकी दैहिकता में कैद रखा गया है। पितृसत्ता ने उसकी इच्छा के विरुद्ध उसकी भूमिकाएं तय की हैं। आज स्त्रियां अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने ऊपर लाद दी गई भूमिकाओं को नकार रही हैं। खुद को वस्तु बना दिए जाने के विरुद्ध अपने मानवीकरण के लिए संघर्ष कर रही हैं। अपने हर स्वाद, सिहरन और सुगंध को रेखांकित कर रही हैं।
स्त्री विमर्श को अपेक्षित मुकाम तक पहुंचने के लिए इन दोनों तरह की अस्वाभाविकताओं से समान दूरी बना कर चलना होगा।
– जयश्री रॉय