केरल का मामला तो रोचक इसलिए भी है क्योंकि वहां वर्ष 2015 में विधानसभा में हंगामे को लेकर प्रमुख माकपा नेताओं के खिलाफ दर्ज मामलों को वापस लेने की अनुमति याचिका को लेकर खुद सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची है। राज्य में आज जो दल सत्तारूढ़ है, वह तब विपक्ष में था। केरल उच्च न्यायालय पहले ही इस संबंध में दायर याचिका को खारिज कर चुका है। महाराष्ट्र के ताजा विवाद के बीच निलंबित किए गए भाजपा विधायकों पर लगे आरोपों को झूठा बताते हुए मंगलवार को विधानसभा के बाहर ही समानान्तर कार्यवाही भी संचालित की गई। सुप्रीम कोर्ट ने केरल मामले में सुनवाई के दौरान साफ कहा है कि हमें विधायक-सांसदों के इस तरह के व्यवहार पर सख्त होना पड़ेगा। जस्टिस डी.वाइ. चंद्रचूड़ ने कहा कि आरोपियों को सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान की रोकथाम अधिनियम के तहत मुकदमे का सामना करना चाहिए। इस तरह के व्यवहार को माफ नहीं किया जा सकता। विधायिकाओं में हंगामे कोई पहली बार नहीं हो रहे। पिछली मार्च के अंत में बिहार में तो पुलिस को हंगामा कर रहे विधायकों को घसीटते हुए सदन से बाहर लाते सबने देखा है। अप्रेल में ही ओडिशा विधानसभा में आसन पर चप्पल, इयरफोन व कागज तक फेंकने के आरोप लगे तो हाल ही पश्चिम बंगाल में राज्यपाल को अभिभाषण तक नहीं पढऩे दिया गया।
जो जनप्रतिनिधि कानून बनाते हैं वे ही कानून का मखौल उड़ाते नजर आएं तो सवाल किससे किया जाए? विधायिकाओं में आचरण समितियां भी बनती हैं लेकिन ऐसे मामलों में पता नहीं क्यों चुप्पी साध ली जाती है। यह बात सही है कि कई बार ऐसे विवादों के दौरान आसन की भूमिका व सत्तारूढ़ दल का रवैया भी जिम्मेदार होता है। लेकिन हंगामे के बजाय अपने देश व प्रदेश की सूरत बदलने की मंशा रखने वाले ही सही मायने में जनप्रतिनिधि कहलाने के हकदार हो सकते हैं।