मानव शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां तथा मन-ये कुल ग्यारह इन्द्रियां हैं। सभी इन्द्रियां अपने-अपने विषयों से जुड़कर उनकी ओर दौड़ती हैं। कठोपनिषद् में कहा गया है कि इन्द्रियों को घोड़े तथा विषयों को उनके मार्ग समझो। इन इन्द्रियों द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता रहता है, उसे प्रत्यय कहते हंै। शरीर के कार्य विभिन्न इन्द्रियां करती हुई प्रतीत होती हैं। त्वचा, आंख, नाक, कान और वाक् ये पांचों इन्द्रियां आपस में कोई सम्बन्ध रखती नहीं दिखती। कोई भी इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय को उसके काम के लिए प्रेरित करती भी नहीं दिखती। फिर भी इनमें कोई आन्तरिक प्रेरणा अवश्य काम करती है। कान ने सुना तो उस सुनी हुई बात को देखने की इच्छा मन में होती है। आंखें किसकी प्रेरणा से उसको देखना चाहती है। जिसे देखा उसे वाक् किसकी प्रेरणा से कहना चाहती है। विशेष बात यही है कि एक विषय के सम्बन्ध में एक इन्द्रिय के पीछे दूसरी और दूसरी इन्द्रिय के पीछे तीसरी इन्द्रिय अपना-अपना काम करने में जुट जाती है। हमारे सामने एक साथ कई विषय होते हैं। किन्तु मन किसी खास विषय की ओर ही किसी प्रेरणा से झुकता है। आसपास के सारे विषयों को छोड़ कर उस एक ही विषय तक पहुंच जाता है।
बोलने की इच्छा हुई तो मुंह से शब्द निकलता है। किन्तु यही वाक् इन्द्रिय शब्द ग्रहण नहीं करती। जो इन्द्रिय सुनती है वह बोलती नहीं, न समझती है और न ही देख पाती है। फिर भी इन्द्रियों के इन कार्यों को लेकर ही हम कह देते हैं कि मैंने ही सुना, मैंने ही देखा, मैंने ही समझा। इसका तात्पर्य यही है कि देखने-सुनने-बोलने-समझने वाला इन इन्द्रियों के अलावा कोई एक अन्य ही है, यही आत्मा है। इन्द्रियों के सभी ज्ञान का आधार और इन्द्रियों का प्रेरक आत्मा ही है। इन्द्रियां अलग-अलग हैं, उनको शक्ति देने वाला, प्रेरणा देने वाला और सब इन्द्रियों में सदैव विद्यमान रहने वाला ‘वह’ एक ही है।
कृष्ण कह रहे हैं कि अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार एक ही आत्मा समस्त क्षेत्र (शरीर) को प्रकाशित करता है। अनुगीता के ब्राह्मण-ब्राह्मणी संवाद में इस विषय पर रोचक वर्णन उपलब्ध है। नासिका, चक्षु, जिह्वा, त्वचा, कान स्थूल और मन, बुद्धि आदि सूक्ष्म स्थान में रहते हैं। एक-दूसरे से जुड़े हैं फिर भी अपने-अपने विषयों के अतिरिक्त अन्य इन्द्रिय विषय के ज्ञान में असमर्थ रहते हैं। ये सभी परस्पर के धर्मों का आधार बनते हैं। किन्तु इन सबका आधार आत्मा एक है, जो बहुत रूपों में प्रकट होता है।
एक एव ममैवात्मा बहुधापि उपचीयते-अनुगीता ३३/२३
कृष्ण कह रहे है कि शरीर से इन्द्रियां, इन्द्रियों से मन, मन से बुद्धि तथा बुद्धि से सूक्ष्म और बलवान आत्मा है। इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:। गीता ३.४२
ब्रह्माण्ड की रचना ब्रह्म की कामना (एकोऽहं बहुस्याम), तप तथा श्रम से हुई। यथाण्डे तथा पिण्डे के अनुरूप यही हमारा मन, प्राण, वाक् कहलाता है। सृष्टि में यही हमारा आत्मा है। मुक्ति की ओर उन्मुख होने पर यह मन-विज्ञान-आनन्द रूप होता है। इन्द्रियों से हर पल आते रहने वाले असंख्य प्रत्ययों (ज्ञानों) का संग्रह करने वाला आत्मा है जो मन सहित इन इन्द्रियों से अलग है। इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान को संचित करने वाला आत्मा न तो इन ज्ञानों (प्रत्ययों) के बढऩे से बढ़ता है, न ज्ञान घटने से घटता है। यह ज्ञान बढ़ता जाता है तो उसे धारणा कहते हैं। जब हम कहते हैं कि मेरी ऐसी धारणा है, इसका मतलब यही है कि उस सम्बन्ध में ज्ञान आत्मा कोश में रखा हुआ है। हालांकि यह कोश एक ही प्रकार का है जिसे समुद्र कह सकते हैं। इससे विभिन्न इन्द्रियों से आते रहने वाले प्रत्यय नदियों के समान हैं। अलग-अलग होते हुए भी ये ज्ञान रूप नदियों का आत्मारूपी समुद्र एक घर बन जाता है। भिन्न-भिन्न ज्ञानों के भेद से शरीर में ये कोश पांच प्रकार के होते हैं। सबसे बाहर अन्नमय कोश है। इसमें अन्य चार-प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश हैं। उन चारों कोशों के पदार्थ (ज्ञान) अन्नमय कोश में रखे रहते हैं। प्राणमय कोश के भीतर मनोमय कोश है जिसमें विज्ञान आदि पदार्थ रखे हैं। मनोमय कोश के भीतर विज्ञानमय कोश है जिसमें आनन्द विद्यमान है। आनन्दमय कोश के भीतर आनन्द ही है। यही पंचकोशमय आत्मा है।
कोश का अर्थ है-पात्र। सीमाभाव से बंधा हुआ ही पात्र कहलाता है। अत: कोश कहने पर आवरण का बोध होता है। आवरण ही तम का, अन्धकार का पर्याय है। किन्तु शुद्ध आत्मा तो स्वयं ही प्रकाशित है। वह किसी वस्तु से आवरित नहीं हो सकता। अन्न से प्राण का, प्राण से मन का, मन से विज्ञान का, विज्ञान से आनंद का आवरण माना जाता है। आनन्दमयकोश जिसका आवरण करता है वह इन पांचों से अलग आत्मा है। आनन्दमयकोश से प्रवृत्त आत्मा को आनन्दमय आत्मा कहते हैं। विज्ञानमय कोश को विज्ञानमय आत्मा, मन को मनोमय आत्मा, प्राणमय कोश को प्राणमय आत्मा और अन्नमयकोश को अन्नमय आत्मा कहते हैं। पांचों कोशों की पांच आत्मा कहने पर भी ये पांचों वास्तव में आत्मा नहीं हैं। वह कोई अन्य तत्त्व ही आत्मा है। जिसके ये पांच कोश हैं। यह वस्तुत: परमात्मा है। यह परम तत्त्व मानव में जीवात्म रूप में विद्यमान होता है। विषय तथा भोगों से सम्बद्ध होकर सकाम कर्म करता है।
इसके परिणामस्वरूप ही जीवात्मा पर कर्मों के फल चढ़ जाते हैं। मानव जन्म से मृत्युपर्यन्त जो भी कर्म करता है, उन कर्मों का संचय आत्मा में हो जाता है। इस आत्मा के पांचकोशों की सहायता से मानव कर्म करता है तथा इनके फलों को संग्रहित कर मृत्यु पश्चात् अपनी अगली यात्रा पर निकल जाता है।